मृदा का वर्गीकरण कीजिए | soil classification in hindi

मृदा का वर्गीकरण - मृदा के निर्माण और विकास में विभिन्न कारकों जैसे - जलवायु, वनस्पति, पैतृक चट्टाने, स्थलाकृति और समय के प्रभाव से भिन्न-भिन्न प्रकार की मृदाएं बनती है ।

मृदाओं की विभिन्नताओं को देखते हुए उसे कई आधार पर विभिन्न वर्गों में बांटा गया है -

  • जननिक वर्गीकरण ( Genetic classification )
  • भू-वैज्ञानिक वर्गीकरण ( Geological classification )
  • भौतिक वर्गीकरण ( Physical classification )
  • कणों के आधार पर भूमि का वर्गीकरण ( Textural classification )


मृदा का वर्गीकरण | soil classification in hindi

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मृदा का वर्गीकरण कीजिए | soil classification in hindi

मृदाओं का वर्गीकरण निम्न प्रकार है -


1. जननिक वर्गीकरण ( Genetic classification )

इस वर्गीकरण में भूमि उद्भव (origin) को ध्यान में रखा जाता है । इस वर्गीकरण में विश्व की समस्त भूमि निम्नलिखित चार भागों में बाँटी गई है -

थर्मोजैनिक वर्ग ( Thermogenic Group ) - 

इस वर्ग की भूमि विश्व के सर्वाधिक गर्म भागों में मिलती है (उण्णा कटिबन्धीय जलवायु) । उच्च ताप इन भूमियों का मुख्य गुण है । इन भूमियों में खनिज सिलिकेट (mineral silicates) शीघ्र ही विघटित हो जाते हैं और अधिक ताप के कारण जैव - पदार्थ भी भूमियों में एकत्रित नहीं हो पाता और शीघ्र ही खनिजीकृत (min eralized) हो जाता है । इस वर्ग में पीले और लाल रंग की दोमट (yellow and red soil) और लैटराइट भूमि आती है ।

फाइटोजैनिक वर्ग ( Phytogenic Group ) —

इस वर्ग का मुख्य गुण कम ताप और समशीतोष्ण जलवायु है । इस वर्ग की भूमियों में जैव - पदार्थ की अधिकता रहती है क्योंकि कम ताप के कारण जैव - पदार्थ सड़ नहीं पाता । खनिज सिलिकेट का विघटन भी धीमी गति से होता है । पॉडसोल्स (podsols) तथा चैस्टनट भूमि (chestnut earth) इत्यादि भूमियाँ इस वर्ग के अन्तर्गत आती हैं ।

हाइड्रोजैनिक वर्ग ( Hydrogenic Group ) -

इस वर्ग की भूमि अति ठण्ड के वातावरण में निर्मित हुई है । टुण्ड्रा क्षेत्र की भूमि इसी वर्ग में आती है । इसमें जैव - पदार्थ की अधिकता होती है । पाँस या पीटमय मिट्टी (peaty soils) भी इस वर्ग सम्मिलित हैं ।

हैलोजैनिक वर्ग ( Halogenic Group ) —

इस वर्ग की भूमियाँ सोडियम लवणों के प्रभाव से निर्मित हुई हैं । ये भूमियाँ क्षारीय (alkaline) हैं ।

कैल्सीमॉर्फिक मृदायें ( Calcimorphic Soils ) -

इन मृदाओं के पैतृक पदार्थ में चूना की मात्रा अधिक होती है ।


2. भू - वैज्ञानिक वर्गीकरण ( Geological Classification )

भू-वैज्ञानिक वर्गीकरण में भूमि को उसके निर्माण के अनुसार दो भागों में बाँटा गया है -

  • अवसादी मृदा ( Sedimentary Soil )
  • वाहित मृदा ( Transported Soil )


अवसादी मृदा ( Sedimentary Soil ) -

ये वे भूमियाँ हैं जो अपने निर्माण और उद्भव के स्थान पर बनी रहती हैं ।

ये निम्नांकित दो प्रकार की होती हैं —

  • मूलस्थानी मृदायें ( Residual soils ) — इये निम्नांकितस प्रकार की मृदायें मूल चट्टानों के ऊपर ही पाया जाती हैं क्योंकि इनका निर्माण उनके नीचे की चट्टानों से ही होता है । पहाड़ी भागों में इस प्रकार की भूमि ही पाई जाती है । इस भूमि में महीन कण तो ऊपर की ओर होते हैं और मोटे कण नीचे की ओर । यह भू - वैज्ञानिक दृष्टि से प्राचीन मृदा है ।

  • कार्बनिक मृदा या संचित मृदा ( Cumulose ) - इस प्रकार की मृदा अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में पाई जाती है । यह भूमि अपने उद्भव में तो मूलस्थानी मृदा के समान होती है लेकिन इनमें जैव - पदार्थ की प्रधानता होती है । इसमें खनिज बहुत कम मात्रा में पाये जाते हैं । ये भूमि अपेक्षाकृत नई हैं और प्रायः दलदली (marshy) क्षेत्रों में पाई जाती हैं । ये भूमि भी दो प्रकार की होती हैं — पाँस मिट्टी (peat soil) और कुपौंस मिट्टी (muck soil) । पाँस मिट्टी से पेड़ - पौधों के तने और पत्तियाँ अधसड़ी अवस्था में होने के कारण पहचाने जा सकते हैं । कुपॉस मिट्टी में जैव - पदार्थ इतना सड़ा हुआ होता है कि उसमें जैव - पदार्थ के भागों को पहचानना सम्भव नहीं होता ।

वाहित मृदा ( Transported Soil )

वाहित भूमि वे हैं जो अपने उद्भव के स्थान से (from their place of origin) पानी, वायु, बर्फ, इत्यादि भौतिक शक्तियों द्वारा हटा दी गई हैं ।

ये कई प्रकार की होती हैं -

  • हिमानी मृदा ( Glacial soil ) — ये मृदायें ग्लेशियर (हिमनद) के प्रभाव से बनती हैं । ग्लेशियर के स्खलित (सरकने पर) होने पर चट्टानें विखण्डित एवं विचूर्णित हो जाती हैं और हिमालय के ऊपरी क्षेत्र में हिमनदों (glaciers) द्वारा बहाकर गई हैं । इस प्रकार की भूमि देहरादून क्षेत्र तथा काश्मीर के कुछ भागों में पाई जाती है ।
  • शैल - मलवा मृदा ( Colluvial soil ) — इस प्रकार की भूमि पहाड़ों की तलहटी (base) में पायी जाती है । यह भूमि गुरुत्वाकर्षण क्रिया द्वारा पहाड़ी ढालों पर भूमि - स्खलन (landslides) से बनी है । इस प्रकार भी भूमि में पत्थर के टुकड़ों की बहुलता होती है । यह भूमि बहुत ही कम उपजाऊ है ।
  • जलोढ़ मृदा ( Alluvial soil ) — यह नदियों द्वारा बहाकर लायी गयी मिट्टी है । हमारे देश के समस्त उत्तरी भाग में इस प्रकार की मिट्टी पायी जाती है । सिन्धु, ब्रह्मपुत्र, गंगा तथा उनकी अनेक सहायक नदियों द्वारा यह मिट्टी बहाकर लाई गई है नदियों के उद्भव स्थानों के समीप इस मिट्टी का स्थूल गठन (coarse texture) पाया जाता है । जैसे - जैसे नदियाँ आगे बढ़ती गई हैं, वे अपने किनारों पर महीन मिट्टी (fine soil) छोड़ती गई हैं । यह भूमि अपनी रचना में सर्वत्र एक सी नहीं है । इसमें कई परत हैं और उसके कण गोलाकार हैं । यह मृदा काफी गहरी है और इसमें सिल्ट, दोमट और बलुई दोमट मिट्टी पाई जाती है गंगा के ऊपरी भाग में बलुई, मध्यवर्ती भाग में दोमट और निचले भाग में चिकनी मिट्टी की प्रधानता है । यह मृदा अधिक उपजाऊ तथा खेती के लिये उत्तम है । उ० प्र० में जलोढ़ मृदाओं में चूना, पोटाश (K2O) और फॉस्फोरस की पर्याप्त मात्रा पाई जाती है परन्तु इसमें नाइट्रोजन तथा कार्बनिक पदार्थ कम होते हैं । ये मृदु क्षारीय होती हैं ।
  • समुद्री मृदा ( Marine Soil ) - यह नदियों द्वारा बहाकर लाई गई मिट्टी है जोकि समुद्र में इकट्ठी होती है कालान्तर में नदियों द्वारा बहाकर लाई गई यह मिट्टी समुद्र की सतह से ऊपर उठ जाती है । इनकी उर्वरता बहुत कम होती है ।
  • सरोवर मृदा ( Lacustrine ) - यह वह भूमि है जो झीलों के अन्दर नदियों द्वारा बहाकर लाई गयी मिट्टी के इकट्ठा हो जाने के फलस्वरूप बनती है ।
  • वातोढ़ी मृदा या वायु द्वारा निर्मित मृदा ( Acolian soil ) — यह वायु द्वारा उड़ाकर लाई गयी मिट्टी है । कृषि लिये यह अधिक महत्व की नहीं है । इस प्रकार की भूमि राजस्थान के कुछ भाग, दक्षिणी - पश्चिमी पंजाब तथा कच्छ (kutch) पाई जाती है ।


3. भौतिक वर्गीकरण Physical Classification )

भौतिक वर्गीकरण में भूमियों को चार वर्गों में बाँटा जाता है -

कार्बनिक, ह्यूमस अथवा पाँस मृदा ( Organic, Humus or Peat Soil ) —

इस वर्ग की भूमि में जैव - पदार्थ (organic matter) की अधिकता पाई जाती है और वह भूमियों के गुणों को विशेष रूप से प्रभावित करता है ।

इस वर्ग में दो प्रकार की भूमि सम्मिलित हैं -

  • अम्लीय ह्यूमस मृदा ( Acidic Humus Soil ) — इन भूमियों में जैव - पदार्थ कैल्सियम कार्बोनेट की अनुपस्थिति में एकत्रित हुआ है । प्रायः ऑक्सीजन की भी इन भूमियों के निर्माण के समय कमी रहती है ।
  • दलदल भूमि ( Fen Soil ) — इन भूमियों में कैल्सियम कार्बोनेट ( CaCO3 ) की उपस्थिति में जैव - पदार्थ एकत्रित हुआ है ।
  • चूना मिट्टी ( Calcareous Soil ) —
    यह भूमि खड़िया (chawk) अथवा चूना - पत्थर (lime stone) नामक चट्टानों से बनी है । अतः इसमें कैल्सियम कार्बोनेट की अधिकता होती है । यदि इस प्रकार की मिट्टी को लेकर उस पर हाइड्रोक्लोरिक अम्ल (hydrochloric acid) डाला जाता है तो उसमें बुलबुले निकलते हुये देखे जा सकते हैं । यह भूमि प्रतिक्रिया में क्षारीय (alkaline) होती है । भूमि की भौतिक दशा अच्छी होती है । जलधारण शक्ति भी अधिक होती है ।

  • खनिज मृदा ( Mineral soil ) - वह भूमि, जिसमें खनिज द्रव्यों की अधिकता पाई जाती है , इस वर्ग में आती है । अधिकांश कृषि भूमि इस श्रेणी की हैं । बलुई (sandy), बलुई दोमट (sandy loam), दोमट (loam), मृत्तिका - दोमट (clay loam), मृत्तिका या चिकनी मिट्टी (clay) इत्यादि भूमियाँ इस वर्ग में सम्मिलित हैं । इन भूमियों का हम अलग से वर्णन करेंगे । 

  • संग्रथित या कंकरीली मृदा ( Concretionary soil ) — यह भूमि अवसादी चट्टानों (sedimentary rocks) द्वारा बनी हैं । इस भूमि में कंकड़ पाये जाते हैं जो सिलिका चूना अथवा फॉस्फेट युक्त होते हैं । कृषि की दृष्टि से इस प्रकार की भूमि का अधिक महत्व नहीं है क्योंकि यह भूमि उपजाऊ नहीं होती ।


4. मृदा - कणों के आकारानुसार भूमि का वर्गीकरण ( Textural Classification of Soil )

कणों के आकार के अनुसार भूमि को निम्नलिखित वर्गों में बाँटा जा सकता है -

बजरीली मृदा ( Gravelly soil ) —

इस भूमि के कण दो मिलीमीटर से बड़े होते हैं । इसमें जैव - पदार्थ का नितान्त ही अभाव होता है । कोई भी कृषि फसल इसमें नहीं उगाई जा सकती है । अतः कृषि भूमि के रूप में बजरीली मिट्टी का कोई महत्व नहीं है ।

बलुई मृदा ( Sandy Soil ) —

इन मृदाओं में बालू की मात्रा 85-100 प्रतिशत, सिल्ट 0-15 प्रतिशत तथा क्ले 0-10 प्रतिशत पाई जाती है । यद्यपि शुद्ध बालू नदी अथवा समुद्र के किनारे पर ही पाई जाती है लेकिन भूमि में बालू का अंश अत्यधिक होने पर वह बलुई कहलाती है । इस भूमि में चिकनाहट तनिक भी नहीं होती । इसमें प्रायः क्वार्ट्ज (quartz) , सिलिका (silica) और अभ्रक (mica) के कण पाये जाते हैं । कण बड़े - बड़े होने के कारण बलुई भूमि अपने अन्दर पानी नहीं रोक सकती । इसकी जुताई बड़ी सरलता से हो जाती है । इसी कारण बलुई भूमि खुली अथवा हल्की भूमि कहलाती है । इस प्रकार की भूमि में फसल उगाने के लिये उसमें पर्याप्त मात्रा में जैव - पदार्थ युक्त खाद (organic manures) मिलाने की आवश्यकता होती है । बलुई भूमि में खाद का प्रयोग करके खरबूजा, तरबूज, ककड़ी, काशीफल इत्यादि जायद ऋतु की शाकभाजी उगाई जा सकती है । मूँगफली और बाजरे की फसलें भी इस भूमि में सफलतापूर्वक उगाई जा सकती हैं ।

निम्नलिखित विधियों से बलुई भूमि को कृषि के लिये अधिक उपयोगी बनाया जा सकता है -

  • चिकनी मिट्टी फैलाकर उसकी जुताई कर दी जाये जिससे यह खेत में भली प्रकार मिल जाये । इस विधि के कई बार दुहराने पर बलुई भूमि में पर्याप्त सुधार हो सकता है ।
  • बार - बार भली प्रकार सड़ा हुआ कम्पोस्ट या गोबर की खाद मिलाते रहने पर भूमि में सुधार किया जा सकता है ।
  • बार - बार हरी खाद का प्रयोग करने पर भी बलुई भूमि सुधर जाती है ।

बलुई दोमट मृदा ( Sandy - loam soil ) –

बलुई दोमट भूमि में औसतन 13% चिकनी मिट्टी, 20% सिल्ट, 63% बालू तथा 4% अन्य पदार्थ होते हैं । यह भूमि साधारणतः उपजाऊ होती है और इसकी जुताई इत्यादि सरलतापूर्वक की जा सकती है । धान को छोड़कर सभी फसलें इस भूमि में सफलतापूर्वक उगाई जा सकती हैं । पर्याप्त खाद और उचित मात्रा में सिंचाई मिलने पर इस भूमि में उत्तम फसलें उत्पन्न की जा सकती हैं । बाजरा, आलू और मूँगफली, सरसों, गाजर, मूली इत्यादि फसलों के लिये बलुई दोमट भूमि सर्वोत्तम रहती है ।

दोमट मृदा ( Loam soil ) —

यह कृषि के लिये सर्वोत्तम भूमि है । इसमें औसतन 16% चिकनी मिट्टी, 40% सिल्ट, 42% बालू तथा 2% अन्य पदार्थ पाये जाते हैं । इस भूमि में प्रायः सभी फसलें अच्छी उपज देती हैं । इसमें मृत्तिका तथा बलुई दोनों प्रकार की भूमियों के गुण तो प्रायः पाये जाते हैं लेकिन उनकी बुराइयों से यह सर्वथा मुक्त रहती है । इसमें जैव - पदार्थ भी पर्याप्त मात्रा में होते हैं ।

सिल्ट या गाद मृदा ( Silt soil ) —

इस भूमि में 20% तक बालू और 80% सिल्ट होती है । कृषि के लिये यह अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमि है और इस वर्ग की भूमि उत्तम फसल उत्पन्न करने की क्षमता रखती है ।

सिल्ट दोमट भूमि ( Silt loam soil ) —

इस भूमि में लगभग 15% चिकनी मिट्टी, 65% सिल्ट, 19% वालू तथा 1% अन्य पदार्थ होते हैं । इस भूमि में चिकनी मिट्टी की ससंजकता (cohesiveness) नहीं होती और न इसमें भूमि की किरकिराहट (grittiness) ही होती है । सिल्ट की अधिकता के कारण इस भूमि में आटे की - सी खसखसाहट (flour - like char acteristics) पाई जाती है । इस भूमि में जलधारण करने की पर्याप्त क्षमता पाई जाती है । कृषि फसलों के लिये यह भी महत्वपूर्ण भूमि है ।

चिकनी दोमट भूमि ( Clay - loam soil ) —

इस भूमि में औसतन 26% चिकनी मिट्टी, 38% सिल्ट, 35% बालू और 1% अन्य पदार्थ पाये जाते हैं । इसमें चिकनाहट (plasticity) होती है । धान तथा गन्ना इत्यादि मूल्यवान फसलें इसमें बड़ी अच्छी उपज देती हैं लेकिन मूँगफली इत्यादि एक - दो फसलों के अतिरिक्त अन्य सभी फसलें इसमें सरलतापूर्वक उगायी जा सकती हैं । यह भूमि मृत्तिका और दोमट के मिश्रित गुण प्रकट करती है । इस भूमि में पानी के निकास का अच्छा प्रबन्ध करके फसलों की अच्छी उपज ले सकते हैं ।

चिकनी मृदा ( Clay soil ) —

इस भूमि में 40% चिकनी मिट्टी, 30% सिल्ट और 30% बालू होती है । भीगी दशा में इसमें भारी चिकनाहट होती है लेकिन सूखने पर यह सख्त हो जाती है और सिकुड़ने के कारण इसमें दरारें पड़ जाती हैं । यह 'भारी भूमि' (heavy soil) कही जाती है, क्योंकि इसमें हल चलाने में अपेक्षाकृत अधिक परिश्रम करना पड़ता है । बैलों पर अधिक खिंचाव भार पड़ता है । इस मृदा में जल तथा वायु का संचलन मंद होता है । इसकी जलधारण क्षमता बहुत अधिक होती है । को गीली दशा में ही जोत देने पर वह देर से सूखती है और उसमें बहुत बड़े - बड़े ढेले पड़ जाते हैं । फिर उसको बुवाई के योग्य बनाना कठिन हो जाता है । चिकनी मृदा चिकनी मृदा में पानी के निकास का प्रबन्ध रखना चाहिये । इस भूमि के ठण्डे होने के कारण फसलें इसमें देर से की हैं । पानी का उचित प्रबन्ध होने पर चिकनी मृदा में धान की अच्छी फसल ली जा सकती है ।

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