मृदा जल (soil water in hindi) किसे कहते हैं यह कितने प्रकार का होता है

मृदा में उपस्थित रन्ध्रता भाग में 25 प्रतिशत जल होता हैं जिसे मृदा जल (soil water in hindi) कहां जाता हैं ।

जल एक सर्वश्रेष्ठ विलायक हैं ।

मृदा जल किसे कहते हैं | soil water in hindi

पौधों के लिये मृदा जल का विशेष महत्व है । जल के अभाव पौधा वृद्धि नहीं कर सकता है । जिन भूमियों में मृदा जल क्रान्तिक बिन्दु पर या इससे कम होता है, वहाँ पौधों के अंकुरण से लेकर पकने तक की अवधि में वृद्धि पर बुरा प्रभाव पड़ता है ।

ऐसी दशा में अंकुरण कम होता है और बहुत ही कम पौध जीवित रह पाती है । पौधे पानी की कमी से बौने रह जाते हैं । यदि वृद्धि की अन्तिम अवस्थाओं जैसे फूल तथा दाना बनते समय पानी की कमी होती है तो पौधे की उपज 25 से 50 प्रतिशत तक कम हो जाती है क्योंकि इन अवस्थाओं में पौधे को अधिक पानी की आवश्यकता होती है तथा भूमि में कृषि कार्य नहीं किये जा सकते हैं ।

बीज के अंकुरण से लेकर पौधे के वृद्धि एवं विकास काल में जल भूमि में अनेक रासायनिक, भौतिक और जैविक क्रियाओं के अतिरिक्त कार्य सम्पादित करता है ।

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प्राप्य जल क्या हैं | available water in hindi

"15 से 1/3 वायुमण्डलीय दाब पर धारित जल पौधों की जड़ों द्वारा सरलता से ग्राह्य होता है इसीलिये इसे प्राप्य जल या उपलभ्य जल कहते हैं ।"

इस प्रकार म्लानि बिन्दु और क्षेत्र क्षमता के बीच जो पानी होता है वह प्राप्य जल कहलाता है । 31 से 15 वायुमण्डलीय दाब के बीच धारित केशिका जल अप्राप्य जल या अनुपलभ्य जल (unavailable water) कहलाता है ।


मृदा जल का महत्व | impotance of soil water in hindi

  • जल बीज को अंकुरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है ।
  • जल पौध की कोशिकाओं में विद्यमान प्रोटीप्लाज्म का एक आवश्यक अंग है । पौधों का 90% भाग जल से बना है ।
  • पौधे को उत्स्वेदन क्रिया (transpiration) के लिए जल आवश्यक है जिससे पीर्थो का ताप नियन्त्रित रहता है ।
  • पौधे अपना भोजन घोल के रूप में लेते हैं । अतः जल, विलायक (solvent) तथा वाहक का कार्य करता है ।
  • जल पौधों की कोशिकाओं को फूली हुई अवस्था (turgid) में रखता है ।
  • जल प्रकाश संश्लेषण के लिए आवश्यक है ।


मृदा जल के प्रकार | types of soil water in hindi

मृदा जल के प्रमुख प्रकार -

  • गुरुत्वीय जल ( Gravitational water )
  • केशिका जल ( Capillary water )
  • आर्द्रताग्राही जल ( Hygroscopic water )
  • रवों का पानी ( Water of crystallisation )


गुरुत्वीय जल ( Gravitational water ) –

वर्षा अथवा सिंचाई के उपरान्त जो जल पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण बल के कारण नीचे चला जाता है और मिट्टी के कण उसे रोकने में असफल रहते हैं, गुरुत्वाकर्षण जल या स्वतन्त्र जल (gravitational water in hindi) कहलाता है । इस समय मृदा नमी तनाव 1/3 वायुमण्डलीय दाब से कम होता है ।

इस प्रकार का जल दीर्घ रन्ध्रों (marco-pores) में स्वतन्त्र रूप से बहता है । यह जल अधिक समय तक भरा रहने पर दीर्घ रन्ध्रों को भरकर उसकी वायु को निकाल देता है । अतः मृदा में आक्सीजन के अभाव में ऑक्सीकरण सम्बन्धी समस्त क्रियायें रुक जाती हैं । पौधों की वृद्धि रुक जाती है । जड़ों को श्वसन के लिये ऑक्सीजन न मिलने से पौधे मर भी जाते हैं । यह जल मृदा से पोषक तत्वों को घोलकर नीचे बहा देता है जिससे भूमि की उर्वरता प्रभावित होती है ।

केशिका जल ( Capillary water ) —

यह मृदा जल की वह मात्रा है जो 31 से 1/3 वायुमण्डलीय दाब पर धारित में होती है । जब मृदा में पानी दिया जाता है तो गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध जो पानी की मात्रा सूक्ष्म केशिका रन्ध्रों कणों के बीच मृदा द्वारा रोक ली जाती है वह पानी केशिका जल (capillary water) कहलाता है ।

अतः क्षेत्रधारिता (field capacity) और आर्द्रता गुणांक (hygroscopic coeffi cient) के मध्य वाली जल की मात्रा केशिका जल कहलाती है । यह जल , सूक्ष्म केशिका रन्ध्रों तथा केशिका विहीन रन्ध्रों (non-capillary pores) की सतहों पर जल पर्त (water film) के रूप में आतनन बल (tensile force) द्वारा धारित रहता है । पतली अथवा मोटी जल पर्त के अनुसार आतनन बल विभिन्न होता है । जब जल पर्त पतली होती है तो आतनन बल अधिक तथा मोटी पर्त होने पर कम होता है । कम आतनन बल होने पर मृदा में जल सफलतापूर्वक भ्रमण कर सकता है ।

मृदा में केशिका जल ही एक ऐसा जल है जो पोषक तत्वों को घोलकर विलयन (solution) के रूप में रखता है, जिसका पौधे उपयोग करते हैं । इस उपयोगिता के कारण इस जल को मृदा विलयन (soil solution) कहा जाता है । यह जल आवश्यक पोषक तत्वों को अपने में विलेय कर मृदा की प्रत्येक दिशा में (ऊपर, नीचे तथा समानान्तर) संचारित होकर पौधों में पहुँचता है ।

नीचे का जल शुष्क कणों के खिंचाव से ऊपर को उठता रहता है । इस क्रिया को केशिका जल चढ़ाव (capillary rise of water) कहते हैं । मृदा में केशिका जल का सभी भाग पौधों को प्राप्य नहीं होता है । क्षेत्र धारिता तथा पौधे के स्थायी मुरझान बिन्दु के वीच केशिका जल की मात्रा ही पौधों को प्राप्त होती है । शेष मात्रा प्राप्त नहीं होती है । मृदा में केशिका जल की मात्रा मुख्य रूप से मृदा कणाकार (texture), मृदा संरचना व कार्बनिक पदार्थ की मात्रा पर निर्भर करती है । मृदा के कणों का आकार जितना सूक्ष्म होगा अर्थात क्ले की मात्रा जितनी अधिक होगी उतना ही केशिका जल अधिक होगा । कार्बनिक पदार्थों की उपस्थिति से भी जल की मात्रा में वृद्धि होती है ।

आर्द्रताग्राही जल ( Hygroscopic water ) –

मिट्टी में अत्यधिक नमी की कमी हो जाने पर भी कणों के खुले हुए पृष्ठ पर एक अत्यन्त बारीक जल की पर्त लगी रहती है । जल के अणु वाष्प की अवस्था में मिट्टी के कणों के चारों ओर पाये जाते हैं । इसे ही आर्द्रताग्राही जल कहते हैं । आर्द्रता जल मृदा कणों से अधिक दृढ़ता के साथ चिपका रहता है । ज्ञात हुआ है कि इस जल पर्त में 15-20 अणु हो सकते हैं । ठोस द्रव अन्तः सीमा (interface) पर अत्यधिक दाब (10,000 वायुमण्डलीय दाब) के कारण जल अणु इतने अधिक सघन रूप से सम्वेष्टित (closely packed) हो जाते हैं कि जल पर्त का अधिकतम भाग द्रव के रूप में नहीं होता है । जल पर्त मोटी होने पर आतनन दबाव कम हो जाता है । पौधे के लिये इस जल की कोई उपयोगिता नहीं है ।

रवों का पानी ( Water of crystallisation ) —

पौधों के लिये इसका महत्व नहीं है । यह खनिजों में पाया जाता है व मिट्टी के कणों में रहता है ।


मृदा जल के स्रोत | sources of soil water in hindi

  • वर्षा (Rain) - भूमि में जल का मुख्य स्रोत वर्षा है जो वर्षा या बर्फ के रूप में प्राप्त हो जाता है ।
  • वायुमण्डलीय जल - भूमि को जल ओस, कुहरा, पाला, ओला, आदि रूपों में भी प्राप्त होता है ।
  • बाढ़ - बाढ़ भी वर्षा से ही सम्बन्धित होती है । अधिक वर्षा के कारण बाढ़ आती है । कुछ क्षेत्रों में जैसे पूर्वी उत्तर प्रदेश के दियारा क्षेत्र में फसल उत्पादन बाढ़ पर निर्भर करता है ।
  • भूमिगत जल (underground water) – पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण मृदा जल का वह भाग जो नीचे रिसता जाता है, भूमिगत जल के रूप में एकत्र होकर जल पटल (water table) का निर्माण करता है । वार्षिक वर्षा का लगभग 12.5 प्रतिशत जल प्रति वर्ष भूमिगत जल में परिवर्तित हो जाता है । यह लगभग 80 मिलियन हैक्टेयर मीटर जल होता है । ऐसा अनुमान किया जाता है कि सिंचाई के रूप में 10.5 मिलियन हैक्टेयर जल ही उपयोग में आ पाता है । कुँओं, ट्यूबवैलों व पम्पिंग सैटों द्वारा भूमिगत पानी सिंचाई के रूप में प्रयोग होता है ।


मृदा जल की हानियाँ | losses of soil water in hindi


भूमि के जल की हानि अग्र प्रकार की होती है -

  • वाष्पीकरण ( Evaporation ) - मृदा जल का बहुत बड़ा भाग वाष्पीकरण क्रिया द्वारा नष्ट होता रहता है । यह क्रिया सभी ऋतुओं में बराबर होती रहती है । गर्म व तेज हवायें वाष्पीकरण द्वारा होने वाली जल हानि को बढ़ा देती हैं । अतः फरवरी - मार्च के माह में चलने वाली तेज हवायें गेहूँ की फसल को बहुत हानि पहुँचाती हैं क्योंकि फसल का पानी वाष्पन द्वारा नष्ट होने पर पौधों को नमी की कमी हो जाती है । जायद फसलों में भी यही समस्या रहती है ।
  • पौधों द्वारा वाष्पोत्सर्जन ( Transpiration ) - पौधे मृदा जल की बहुत अधिक मात्रा वाष्पोत्सर्जन के रूप में उड़ा देते हैं । यह एक बुराई होते हुये भी पौधों के लिये आवश्यक क्रिया है । पौधा भूमि से कुल जितना पानी अवशोषण करता है, उसका अधिकांश भाग वाष्पोत्सर्जन में नष्ट हो जाता है । बहुत कम मात्रा में पौधे की कोशिकाओं के विकास व निर्माण में प्रयोग की जाती है । प्रति 1000 ग्राम पानी का केवल 1 या 2 ग्राम मात्रा ही पौधे के विकास में खर्च होती है । वाष्पोत्सर्जन क्रिया द्वारा पौधे भीषण गर्मी के प्रभाव से बचे रहते हैं तथा तापमान नियन्त्रित रहता है ।
  • पानी की हानि अपधावन के रूप में ( Run off ) - वर्षा के पानी की वह मात्रा, जो भूमि द्वारा शोषित होने से वच जाती है और नीचे धरातल की ओर बहती है , अपधावन कहलाता है । यह अपधावन अपने साथ खेतों की मिट्टी को भी वहा ले जाता जिससे उर्वरता ह्रास होने के साथ - साथ मिट्टी में कटाव पैदा हो जाते हैं । अपधावन की मात्रा का कम या अधिक होना वर्षा की मात्रा, प्रचण्डता, अवधि, भूमि के ढाल तथा वनस्पति आवरण पर निर्भर करता है ।
  • सीपेज एवं परलोकेशन ( Seepage & Percolation ) - मृदा जल की वह मात्रा, जो क्षैतिज रूप से रिसकर नष्ट होती है, सीपेज कहलाती है । जैसे कि नहरों व नालियों के किनारे वाले खेतों में पानी की अधिक मात्रा रिसकर एकत्रित होती रहती है । हल्की मिट्टी में रिसन द्वारा जल हानि अधिक व भारी मिट्टी में कम होती है ।

जब पानी ऊपरी सतह में प्रवेश करने के बाद नीचे गहराई में मृदा स्तम्भ में होकर संचालित होता है (movement of water through a column of soil) तो यह परकोलेशन या पारच्यवन कहलाता है । यह पानी भूमि जल (ground water) में मिल जाता है जिसका बाद में उपयोग ट्यूबवैल या कुँआ के पानी द्वारा सिंचाई करने में होता है ।


क्षेत्र क्षमता या क्षेत्र धारिता या आर्द्रता धारण क्षमता | field capacity in hindi

क्षेत्र क्षमता मृदा की वह क्षमता है जिसके द्वारा वह गुरुत्व बल के नीचे की ओर खिंचाव के विपरीत जल को धारण कर सकती है । अच्छे जल निकास वाली भूमि सिंचाई या वर्षा के लगभग 36 घंटे के बाद पृष्ठीय मृदा में जो नमी होती है वह क्षेत्र 1 क्षमता पर होती है । इस समय नमी तनाव (moisture tension) लगभग 1/3 एटमॉस्फियर होता है ।
अथवा
"1/3 वायुमण्डलीय दाब पर धारित मृदा जल की प्रतिशत मात्रा को क्षेत्र क्षमता (field capacity in hindi) कहते हैं ।"


स्थायी म्लानि बिन्दु या म्लानि प्रतिशत | permanent wilting point or wilting percentage in hindi

भूमि में नमी के कम होते जाने के साथ - साथ मृदा नमी प्रतिबल (soil moisture stress) बढ़ता जाता है और एक ऐसी स्थिति आ जाती है कि जब भूमि में नमी की एक निश्चित मात्रा रहते हुए भी, पौधे उसे ग्रहण करने में सक्षम नहीं हो पाते हैं फलतः मुरझाने लगते हैं । इस स्थिति को ही म्लानि बिन्दु (wilting point) अथवा क्रान्तिक नमी बिन्दु कहते हैं ।

यह स्थिति प्रायः 15 वायुमण्डल के मृदा जल तनाव पर उत्पन्न होती है । इस बिन्दु पर धारित केशिका जल की प्रतिशत मात्रा को शुष्कांक या म्लानि गुणांक अथवा क्रान्तिक मृदा नमी कहा जाता है ।

इसे निम्न सूत्र द्वारा ज्ञात किया जाता है—
(Wilting Coefficient) = जल तुल्यांक/1.84

सामान्यतः म्लानि गुणांक रेत में 2-3 प्रतिशत तथा अधिक ह्यूमस वाली भारी मटियार में 15-20 प्रतिशत पाया जाता है ।

“पानी की कमी के कारण जब पौधे स्थायी रूप में मर जाते हैं तो उस समय भूमि में उपस्थित नमी प्रतिशत, भूमि का म्लानि बिन्दु कहलाता है । प्रारम्भ में पानी की कमी से पौधे दोपहर के समय मुरझाते हैं और शाम को ठीक हो जाते हैं । इसे अस्थाई म्लानि बिन्दु कहते हैं ।"

विभिन्न प्रकार की भूमियों का म्लानि बिन्दु भिन्न होता है । उस पर कोलाइडी पदार्थ तथा जैव पदार्थ का भारी प्रभाव पड़ता है ।


मृदा नमी का संरक्षण | conservation of soil moisture in hindi


मृदा नमी जल संरक्षण के लिये निम्नलिखित उपाय अपनाये जा सकते हैं -

  • समय पर जुताई व पाटा लगाना - जुताई गहरी करें और जुताइयों की संख्या कम हो, तथा प्रत्येक जुताई के बाद पाटा लगायें । जुताई समय पर करें ।
  • निकाई ( खरपतवार नियन्त्रण ) – खरपतवार मृदा जल की बहुत बड़ी मात्रा का उपयोग करते हैं । अतः खरपतवारों को निराई - गुड़ाई या खरपतवारनाशी रसायन से नष्ट कर देना चाहिये ।
  • मल्चिंग - भूमि की खुरपी द्वारा गुड़ाई करने से प्राकृतिक पलवार (natural mulch) हो जाने से पानी की हानि कम हो जाती है या भूमि को घास, पत्तियों, पौधों के अवशेषों या पोलीथीन की चादर डालकर ढक देते हैं जिससे वाष्पीकरण क्रिया द्वारा जल को हानि कम हो जाती है तथा खरपतवार नियन्त्रित हो जाते हैं ।
  • भूमि में जैविक खाद मिलाना – भूमि में जैविक खाद मिलाने से मिट्टी की जलधारण क्षमता बढ़ जाती है, क्योंकि भूमि में कोलाइडी पदार्थ की मात्रा बढ़ जाती है ।
  • खेत की मेंड़बन्दी करना - पानी की अधिकतम मात्रा एकत्रित करने के लिये एवं पानी को बहकर नष्ट होने से बचाने के लिये खेत के चारों ओर मेंड़बन्दी कर दी जाती है ।
  • ढालू भूमि पर सभी कृषि क्रियायें जुताई, बुवाई, गुड़ाई, आदि ढाल के विपरीत दिशा में करनी चाहिये । इससे अधिक पानी संरक्षित किया जा सकता है ।
  • पानी की रिसन द्वारा हानि को रोकने के लिये नालियों को पक्का बनाना चाहिये या कच्ची नालियों में किसी पदार्थ की लाइनिंग (नाली की भीतरी सतह पर किसी चीज की तह/पर्त चढ़ाकर) करनी चाहिये ।

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