टिकाऊ खेती/स्थाई कृषि क्या है ‌इसके लाभ, उद्देश्य एवं इसका महत्व व क्षेत्र

टिकाऊ खेती/स्थाई कृषि खेती के उस प्रकार को इंगित करती है जो पर्यावरण अनुकूल है तो दूसरी और यह स्थाई कृषि/टिकाऊ खेती (sustainable agriculture in hindi) उस विधि पर आधारित है जो प्रकृति एवं अस्तित्व के सामान्य नियमों पर आधारित है ।


टिकाऊ खेती/स्थाई कृषि‌ का अर्थ | meaning of sustainable agriculture in hindi

वास्तव में, पोषणीय विकास आज एक नारे के रूप में प्रयोग किया जाने लगा है । विश्व बैंक से लेकर युनिसेफ तक प्रत्येक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था एवं विश्व का प्रत्येक देश इस विषय में अभिरुचि ले रहा है । 

ऐसे में टिकाऊ खेती/स्थाई कृषि का अर्थ (meaing of sustainable agriculture in hindi) में समझने की अत्यधिक आवश्यकता है जिसके लिए इसके उद्देश्यों एवं दशाओं की जानकारी विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है ।


टिकाऊ खेती/स्थाई कृषि‌ की परिभाषा | definition of sustainable agriculture in hindi

प्रेटी (Pretty, 1996) के कथनानुसार -

“भोजन एवं रेशा उत्पादन करने की कोई भी कृषिगत विधि जो प्राकृतिक प्रक्रियाओं को प्रोत्साहित करती हो; कृत्रिम कृषि निविष्टियों में कमी लाती हो; उत्पादन संसाधनों एवं अवसरों में समानता स्थापित करती हो; पौधों एवं पशुओं की जैवकीय क्षमता को कृषि उत्पादन में अधिकाधिक प्रयुक्त करती हो; कृषकों एवं ग्रामीण समुदाय को आत्मनिर्भर बनाती हो; उत्पादन स्तर को लम्बी अवधि तक बनाये रखने का आयोजन करती हो एवं एकीकृत कृषक प्रबन्धन के द्वारा मृदा, जल, ऊर्जा, जैविक संसाधनों का संरक्षण करती हो उसे ही टिकाऊ खेती/स्थाई कृषि (sustainable agriculture in hindi) के अंतर्गत परिभाषित किया जा सकता है ।


टिकाऊ खेती/स्थाई कृषि क्या है | sustainable agriculture in hindi

आज पर्यावरण ह्रास की चिन्ता विश्वव्यापी बहस, सेमिनार, सम्मेलन आदि की विषय - वस्तु है । इसका उद्देश्य पर्यावरण और विकास के बीच औचित्यपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करना है ।

यह उद्देश्य कृषि के क्षेत्र में भी स्पष्ट प्रकट हो रहा है कि किस प्रकार उत्पादन की वृद्धि के साथ - साथ मृदा की उत्पादक शक्ति की रक्षा की जाये । यह विशेषता जिस प्रकार की कृषि में तलाशी जा रही है, उसे ही कृषि वैज्ञानिक टिकाऊ खेती/स्थाई कृषि (sustainable agriculture in hindi) कह रहे हैं ।

चट्टोपाध्याय (Chattopadhyaya, S.K. 1991) ने स्थाई कृषि/टिकाऊ खेती परिभाषित करने वाले सभी प्रयासों में विकास को दीर्घ अवधि तक चलने वाली सुखद परिणामों वाली, बिना समाप्त या कम हुए भविष्य की पीढ़ियों को उपलब्ध रहने वाली सतत प्रक्रिया बताया है ।

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टिकाऊ खेती/स्थाई कृषि का मुख्य सिद्धांत -

टिकाऊ खेती का केन्द्रीय सिद्धान्त है - “जीयो और जीने दो" अर्थात् स्थाई कृषि/टिकाऊ खेती का वह मानवीय स्वरूप है जो इसे सहअस्तित्व, अहिंसा एवं समता - समानता की पगडण्डी पर अग्रसरित करती है ।

वस्तुतः टिकाऊ खेती/स्थाई कृषि (sustainable agriculture in hindi) के हमारे उद्देश्य एवं दृष्टिकोण को बदलने की एक प्रक्रिया के रूप में देखा जा सकता है ।


टिकाऊ खेती/स्थाई कृषि के क्या लाभ है | benefits of sustainable agriculture in hindi

टिकाऊ खेती पर्यावरण, मानवीय समाज, किसानों, किसान परिवारों एवं पशुधन सभी के लिए लाभप्रद खेती है ।

स्थाई कृषि/टिकाऊ खेती (sustainable agriculture in hindi) के माध्यम से जो भोज्य पदार्थ उत्पन्न किये जाते हैं वे उपभोक्ता के लिए स्वास्थ्य वर्धक होते हैं तथा टिकाऊ खेती की प्रक्रिया अपने समूचे पर्यावरण के लिए मित्रवत् होती है ।


टिकाऊ खेती/स्थाई कृषि के मुख्य लाभ -

  • पर्यावरण संरक्षण में योगदान
  • प्रदूषण की रोकथाम
  • लागत में कमी
  • जैव विविधता में बढ़ोतरी
  • पशुधन के लिए लाभकारी
  • हरियाली में वृद्धि
  • सामाजिक समानता में वृद्धि
  • किसानों के लिए आर्थिक रूप से लाभकारी
  • अक्षय स्रोतों में वृद्धि
  • सुख - शांति व सौन्दर्य के स्रोतों में वृद्धि


स्थाई कृषि/टिकाऊ खेती (sustainable agriculture in hindi) के अंतर्गत खेत - खलिहान एवं फसलें किसान व खेत श्रमिकों से अत्यन्त कोमल व्यवहार करते हैं और उन्हें किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचाते । टिकाऊ खेती पशुधन के लिए भी उपयोगी एवं अनुकूल सिद्ध होती है ।

यदि हम एक वाक्य में कहें तो स्थाई कृषि/टिकाऊ खेती के द्वारा खेती जनित सभी प्रकार की समस्याओं पर स्वत: अंकुश लग जाता है और खेती प्रकृति का एक अवयव और अनुपम उपहार बन जाती है ।

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टिकाऊ खेती के लाभ को इस प्रकार देखा जा सकता है -


( 1 ) पर्यावरण संरक्षण में योगदान -

पर्यावरण जीवन का संबल है और हमारी अनेक प्रमुख आवश्यकताओं की पूर्ति करता है । इसी से हमें स्वच्छ हवा, साफ पानी, हरे - भरे जंगल, विविध पशु - पक्षी और आधारभूत मिट्टी प्राप्त होती है । इसलिए हमारा कर्त्तव्य है कि हम पर्यावरण को उसी अवस्था में अपनी आगामी पीढ़ियों को सौप दे जिस अवस्था में यह हमें हमारे पुरखों से मिला है । टिकाऊ खेती प्रकृति आधारित खेती होने के कारण पर्यावरण संरक्षण में हमारी पूरी सहायता करती है ।


( 2 ) प्रदूषण की रोकथाम -

टिकाऊ खेती में प्रयुक्त होने वाली कृषि निविष्टियाँ अपनी उपयोगिता से हम लाभान्वित करके अंतिम रूप से प्राकृतिक परिवेश में घुल - मिल जाती है और पर्यावरण को किसी भी प्रकार से हानि नहीं पहुँचाती; उदाहरण स्वरूप इसमें प्रयुक्त होने वाली सड़ी - गली गोबर की खाद मिट्टी में मिलकर उसे भी किसी प्रकार से विषाक्त नहीं करती ।


( 3 ) लागत में कमी -

टिकाऊ खेती की विधियों में कृत्रिम संसाधनों का प्रयोग कम - से - कम किया जाता है, इसलिए इससे खेती की लागत में कमी हो जाती है । इसके अंतर्गत कृत्रिम खाद, कृत्रिम कीटनाशियों एवं जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता समाप्त हो जाती है । जिससे अंतत: न केवल किसान के लाभ में बढ़ोतरी हो जाती है, वरन् समूची मानवता लाभान्वित होती है ।


( 4 ) जैव विविधता में बढ़ोतरी -

टिकाऊ खेती के अंतर्गत खेतों में अनेक प्रकार की वनस्पतियों एवं जीवधारियों को पलने - बढ़ने का सुअवसर प्राप्त होता है जिससे कृषि परिवेश की जैव विविधता में बढ़ोतरी हो जाती है । उदाहरण स्वरूप टिकाऊ खेती के लिए कृत्रिम खाद के स्थान पर जब केंचुओं द्वारा खाद बनाने की प्रक्रिया अपनाई जाती है तो केचुओं के साथ - साथ अनेक प्रकार के स्थूल जीवधारी खाद में पनप जाते हैं ।


( 5 ) पशुधन के लिए लाभकारी -

टिकाऊ खेती की प्रक्रिया ऐसी है जिसके अंतर्गत खेती एवं पशुपालन को साथ - साथ किया जाता है । ऐसे में पशुधन की संख्या में बढ़ोतरी होती है । यही नहीं टिकाऊ खेती मत्स्य पालन, शूकर पालन, मुर्गा पालन, कुक्कुट पालन, बत्तख पालन आदि को प्रोत्साहित करती है ।


( 6 ) हरियाली में वृद्धि -

टिकाऊ खेती खेती के साथ बागवानी एवं कृषि वानिकी को अपनाने पर अत्याधिक जोर देती है जिससे परिवेश की कुल हरियाली में अप्रत्याशित वृद्धि हो जाती है । इससे एक ओर किसान को लम्बे समय तक लाभ होता रहता है जबकि पर्यावरण भी सुहावना एवं संतुलित बना रहता है ।


( 7 ) किसानों के लिए आर्थिक रूप से लाभकारी -

टिकाऊ खेती की पद्धति के अंर्तगत एक ओर किसानों की लागत में कमी होती है, दूसरी ओर खेती में वृक्षारोपण, पशुपालन आदि के परस्पर उपयोग का एक ऐसा समग्र चक्र विकसित हो जाता है जिससे व्यर्थ पदार्थों का निकास शून्य हो जाता है । इससे किसान का आर्थिक लाभ बढ़ जाता है । साथ ही इससे केवल तात्कालिक लाभ ही प्राप्त नहीं होता वरन् लम्बे समय तक लाभ मिलता रहता है ।


( 8 ) सामाजिक समानता में वृद्धि -

टिकाऊ खेती सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक रूप से किसान, श्रमिक, समुदाय एवं परिवेश के मानवीय सम्बन्धों पर आधारित है । इसके अंतर्गत सभी लाभ के बराबर भागीदार होते हैं, इसलिए इससे सामाजिक समानता व समरसता में वृद्धि होती है । किसान को जहाँ आर्थिक लाभ मिलता है वहीं श्रमिक को निरन्तर कार्य व मजदूरी की प्राप्ति सुनिश्चित हो जाती है ।


( 9 ) अक्षय स्रोतों में वृद्धि -

टिकाऊ खेती एक ओर खेती के कृत्रिम संसाधनों से परहेज करती है जबकि दूसरी ओर प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग को प्रोत्साहित करती है । इससे पर्यावरण में अक्षय स्रोतों की वृद्धि होने लगती है । उदाहरण स्वरूप रासायनिक खाद के स्थान पर जैविक खाद के स्रोतों में वृद्धि होती है ।


( 10 ) सुख - शांति व सौन्दर्य के स्रोतों में वृद्धि -

टिकाऊ खेती से जैव विविधता, पर्यावरण संरक्षण, सामाजिक समानता एवं पारस्पर निर्भरता का जो समग्र जीवन संतुलन निर्मित होता है वह मानवीय परिवेश में सुख - शांति एवं सौन्दर्य के स्रोतों में वृद्धि एवं अनुकूलता के दर्शन सुलभ हो जाते हैं । कर देता है । इससे कृषि क्षेत्र एवं परिवेश में जीवन की सार्थकता एवं अनुकूलता के दर्शन सुलभ हो जाते हैं ।


टिकाऊ खेती/स्थाई कृषि के उद्देश्य | objectives of sustainable agriculture in hindi


जूल्स (Jules, N. Pretty, 1996, पृ० 9) के अनुसार स्थाई कृषि/टिकाऊ खेती की प्रमुख चुनौती आन्तरिक संसाधनों का बेहतर और सर्वोत्तम उपयोग करना है ।

यह उपयोग में लाये जाने वाले बाह्य निवेशों को कम कर एवं आंतरिक संसाधनों को और मजबूती से पुर्नस्थापित कर अथवा दोनों को सम्मिलित रूप से अपनाकर किया जा सकता है ।


इस प्रकार पोषणीय कृषि खाद्यान्न या रेशा उत्पादन की वह प्रणाली है जिसमें निम्नलिखित तथ्यों को ध्यान में रखा जाता है -

  1. कृषि उत्पादन प्रक्रियाओं में पोषण चक्र, नाइट्रोजन स्थिरीकरण, कीट - कीटभक्षी अर्न्तसम्बन्ध जैसे प्राकृतिक तंत्रों को और पूर्णता के साथ आत्मसात करना ।
  2. खेत के बाहर अनव्यकरणीय, निवेशों, जो पर्यावरण अवक्रमण तथा उपभोक्ता एवं कृषकों के स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाने में अत्यधिक सक्षम हैं, का उपयोग कम करना एवं शेष निवेशों का गुण - दोष के आधार पर न्यूनतम उपयोग ताकि लागत चरों को कम किया जा सके ।
  3. उत्पादन संसाधनों एवं अवसरों की प्राकृतिक विरासत को कायम रखना एवं सामाजिक रूप से उपयुक्त कृषि की तरफ कदम ।
  4. अभी तक वैज्ञानिकों द्वारा पूर्ण रूप से न समझी गयी एवं कृषकों द्वारा बड़े पैमाने पर न अपनायी गयी स्थानीय ज्ञानपरक, अन्वेषणात्मक तथा गवेषणात्मक कृषि प्रणालियों का और अधिक उत्पादक प्रयोग ।
  5. वनस्पतियों व जन्तुओं की प्रजातियों की जैविक एवं जीन क्षमता का उत्पादक प्रयोग ।
  6. कृषकों एवं ग्रामीण लोगों में आत्मनिर्भरता को बढ़ाना ।
  7. भू - दृश्य एवं मौसम/जलवायु की पर्यावरणीय सीमाओं में वर्तमान उत्पादन दर को दीर्घ अवधि तक टिकाऊ रखने के लिए कृषि प्रतिरूप/शस्य प्रतिरूप एवं उत्पादन क्षमता में सुधार लाना ।
  8. समुचित कृषि व्यवस्था पर जोर द्वारा लाभप्रद एवं सक्षम उत्पादन के साथ ही मृदा - संरक्षण, जल - संरक्षण, ऊर्जा - संरक्षण एवं जैविक संसाधन - संरक्षण का जोर ।
  9. ये सभी घटक मिलकर संसाधनों का अधिक दक्ष एवं प्रभावी उपयोग कर समन्वित कृषि का आधार बनते हैं ।


इस प्रकार टिकाऊ खेती/स्थाई कृषि (sustainable agriculture in hindi) व्यापक स्तर के कीट - पतंगों, पोषण - तत्त्वों , मृदा एवं जल प्रबन्धन तकनीकों के समन्वित प्रयोग के लिए सतत प्रयत्नशील रहती है ।

प्रत्येक खेत की जैव भौतिकी एवं सामाजिक - आर्थिक परिस्थितियों के अनुसार तकनीकी वैशिष्ट्य प्रदान कर इन घटकों को समन्वित किया जाता है ।

स्थाई कृषि/टिकाऊ खेती का उद्देश्य सभी घटकों/तत्त्वों का खेत घनिष्ठ संबंध एवं अन्तबहाव के साथ - साथ तत्वगत विविधता बढ़ाना है । किसी एक घटक का बेकार पदार्थ या अवशिष्ट, दूसरे घटक के लिए निवेश बन जाता है ।

क्योंकि आन्तरिक निवेशों में अधिकतर प्राकृतिक प्रक्रियाओं का योग रहता है, अत: पर्यावरणीय दुष्प्रभाव कम हो जाता है ।

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स्थाई कृषि/टिकाऊ खेती का सैद्धान्तिक विकास‌ | theoretical development of sustainable agriculture in hindi


स्थाई कृषि/टिकाऊ खेती का सैद्धान्तिक विकास बीसवीं सदी के प्रारम्भिक दशकों में प्रारम्भ हुआ ।

सर्वप्रथम डॉ० रुडोल्फ स्टीनर (1920) ने जैवगतिक कृषि (bio dynamic agriculture) पर अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया । इसके पश्चात् दो दशकों में कार्बनिक खेती (organic farming) के लिए रोडेल फाउण्डेशन की स्थापना हुई ।

1962 ई० में राशेल कार्सन की महत्त्वपूर्ण पुस्तक 'साइलेण्ट स्प्रिंग' प्रकाशित हुई । क्लब आफ रोम (1972) ने वृद्धि की सीमाएँ (limits of growth) प्रकाशित की और उसी वर्ष 'इण्टर नेशनल फेडरेशन फॉर आर्गेनिक एग्रीकल्चर मूवमेण्ट (IFOAM)' का गठन हुआ ।


प्राकृतिक खेती (natural farming) के प्रवर्तक जापान के विद्वान डॉ० मंसानोबु फुकुओका (1980) ने एक तिनके की क्रान्ति, 'खेती की प्राकृतिक विधियाँ' तथा 'ग्रीन फिलासोफी' जैसी पुस्तकों का प्रकाशन किया ।

ब्राजील (1992) में संपन्न हुए पृथ्वी सम्मेलन के 'एजेण्डा -21' के अन्तर्गत टिकाऊ कृषि को सम्मिलित किया गया जिसके तहत वर्तमान कृषि नीति की समीक्षा, कार्यक्रम में लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करना, कृषि में रोगकार विविधता लाना, भूमि संसाधन नियोजन सूचना उपलब्ध कराना, भूमि एवं कृषि संरक्षण एवं पुनर्वास के कार्यक्रम प्रस्तावित किये गये । इन कार्यक्रमों के सफल क्रियान्वयन हेतु प्रतिवर्ष 31.8 बिलियन अमेरिकी डालर के खर्च का लक्ष्य रखा गया ।

इस प्रकार स्थाई कृषि/टिकाऊ खेती का सैद्धान्तिक एवं धरातलीय विकास एक साथ हुआ है ।


इसके निम्न प्रमुख बिन्दु हैं -

  1. जैविक खेती क्योंकि अधिक बाह्य उपादान उपयोग पर आश्रित नही है और इसके पोषण के लिये जल की अनावश्यक मात्रा भी वाछित नहीं है इसलिए यह प्रकृति के सर्वाधिक समीप है और प्रकृति ही इसका आदर्श है ।
  2. इस खेती की सम्पूर्ण प्रक्रिया में मिट्टी को एक जीवंत अंश के रूप में देखा जाता है साथ ही पूरी प्रक्रिया प्राकृतिक प्रक्रियाओं के सामंजस्य व उनके एक - दूसरे पर प्रभाव की जानकारी पर आधारित होने के कारण इससे न तो मृदा जनित तत्त्वों का दोहन होता है और न ही मृदा की उर्वरता का ह्रास होता है ।
  3. मृदा में रहने वाले सभी जीव रूप इसकी उर्वरता के प्रमुख अंग हैं और सतत् उर्वरता संरक्षण में योगदान करते हैं । अत: इनकी सुरक्षा व पोषण किसी भी कीमत पर आवश्यक है ।
  4. पूरी प्रक्रिया में मृदा एवं पर्यावरण का संरक्षण किया जाना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है ।
  5. इसके अंतर्गत संश्लेषित आदानों जैसे - रासायनिक खाद, कीटनाशी, हारमोन्स आदि के प्रयोग को नकार कर प्राकृतिक आदानों जैसे - जैव अवशिष्ट, मित्र कीटों, आदि का प्रयोग किया जाता है ।


स्थाई कृषि/टिकाऊ खेती का पद्धतिगत विकास | methodological development of sustainable agriculture in hindi


कृषि की वैकल्पिक पद्धतियों की खोज और इसके स्थायित्व की चिन्ता बहुत नयी नहीं है, वरन् इस संदर्भ में सतत प्रयास जारी रहे हैं । इस संदर्भ में विभिन्न विशेषज्ञों द्वारा सुझायी गयी सभी 'वैकल्पिक पद्धतियाँ' समान नहीं हैं ।

ये सभी पद्धतियाँ विकास के वर्तमान स्वरूप को चुनौती देने वाली तथा सतत् अथवा स्थायी विकास के लिए प्रयासरत हैं । इन्हीं प्रयासों ने वर्षों पूर्व प्रतिपादित शब्द 'स्थायित्व' को आज प्रासंगिक और बहुचर्तित बना दिया है ।

पोषणीय अथवा स्थाई कृषि/टिकाऊ खेती अपने आप में काफी विस्तृत है तथा इसमें अनेक पद्धतियाँ और तकनीकें हैं, जिनका उद्देश्य और प्रयास खेती को लम्बी अवधि तक के लिए सतत प्रक्रिया के रूप में उभारना है ।

उपरोक्त विवेचना से स्पष्ट है कि स्थाई कृषि/टिकाऊ खेती का सैद्धान्तिक एवं पद्धतिशास्त्रीय विकास बीसवीं सदी में ही हुआ है ।

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स्थाई कृषि/टिकाऊ खेती के चरण एवं स्वरूप | steps and form of sustainability in hindi


शाब्दिक अर्थ में 'पोषणीयता' किसी भी तत्व को उसकी विद्यमान दशा में कायम रखना है ।

पारिस्थितिकीय संदर्भ में पोषणीयता का तात्पर्य है भावी पीढ़ियों की आवश्यकताओं को देखते हुए मानव जीवन की गुणवत्ता बनाए रखने हेतु आवश्यक पारिस्थितिक दशाओं का पाया जाना ।

(The existence of the ecological conditions necessary to support human life at a specified level of well being through fulture generations) ।

यहाँ कल्याण का स्तर आर्थिक पोषणीयता का द्योतक है, दूसरी ओर ब्राबीयर (Brabier, E.B. 1987) पोषणीयता को सामाजिक संदर्भ में अभीष्ट सामाजिक मूल्यों, परम्पराओं, संस्थाओं, संस्कृति अथवा अन्य सामाजिक विशेषताओं को बनाये रखने में सक्षम माना है ।

"The ability to maintain desired social, values, traditions, institutions, culture or other social characteristics".

स्थायी कृषि तन्त्र के लिए तीन चीजों का विशेष ध्यान रखना होगा - क्षमता, विकल्प एवं पुनर्व्यवस्था । यह उस स्थिति में संभव है जब इनकी रचना, क्रियान्वयन एवं आकलन पूरी सहभागिता के साथ तथा किसानों द्वारा किए जाये क्योंकि वे अपनी परिस्थितियों और कठिनाइयों से भलीभाँति परिचित होते हैं । छोटे और सीमान्त कृषकों का, जिनके पास खेती के अतिरिक्त आमदनी का कोई अन्य स्रोत कम हो तथा जिनके खेत असिंचित एवं अतिशोषित हो ।


जिनकी खेती जटिल, विविध और संवेदनशील हों उन्हें निम्न चरणों में बदलाव की ओर जाना चाहिए -

  • बायोमास स्रोतों/उत्पादकों के बीच की कड़ियों को सशक्त करना (सामूहिक निर्माण द्वारा सम्पन्न हो सकता है) ।
  • बायोमास उत्पादन (तन्त्र से लगातार हो रहे हास को नियन्त्रित करने के लिए) ।
  • कम लागत और परिस्थिति के अनुकूल (पर्यावरण हितकारी) तकनीकों को अपनाना ।


'टेक्निकल एडवाइजरी कमेटी आफ द कन्सल्टेटिव ग्रुप आन इण्टरनेशनल एग्रीकल्चरल रिसर्च' के अनुसार पर्यावरण को बनाये रखते हुए, उनका गुणात्मक सुधार करते हुए एवं प्राकृतिक संसाधनों को सुरक्षित रखते हुए तथा संसाधनों का सफल समन्वयन करते हुए कृषि संसाधनों द्वारा मानव की परिवर्तित होती आवश्यकताओं को पूरा करना ही पोषणीय कृषि है ।

इसकी सबसे प्रचलित परिभाषा के अनुसार टिकाऊ खेती/स्थाई कृषि (sustainable agriculture in hindi) ऐसी कृषि है जो पारिस्थितिक दृष्टि से न्यायोचित एवं मानवीय हो ।

Sustainable agriculture is one that is ecological sound, economically viable, socially just, humane and adoptable (Gips, 1987)


इसके विस्तृत स्वरूप में निम्न प्रकार समझा जा सकता है -


1. पारिस्थितिकी सुदृढ़ ( Ecologically Sound ) -

पारिस्थितिकी सुदृढ़ का अर्थ प्राकृतिक संसाधनों को बनाये रखना तथा सम्पूर्ण कृषि पारिस्थितिक तन्त्र की सजीवता - मानव से लेकर शस्य, पशुधन एवं मृदा के सूक्ष्म जीवों तक को बढ़ाना है । मृदा समन्वयन और शस्य, पशु एवं लोगों का स्वास्थ्य जब जैविक प्रक्रियाओं (स्वानियामक) द्वारा संपादित होता है तब इसकी प्रतिभूति सर्वश्रेष्ठ होती है । संसाधन इस प्रकार प्रयोग किए जाते हैं कि पोषक तत्त्वों, जैव भार एवं ऊर्जा के क्षरण को कम करते हों तथा प्रदूषण को नकारते हों, इसमें ज्यादा बल नव्य करणीय संसाधनों पर होता है ।


2. आर्थिकक्षम ( Economically Viable ) -

आर्थिकक्षम का अर्थ यह है कि कृषक स्वसम्पन्नता एवं आय हेतु पर्याप्त उत्पादन कर सकें तथा श्रम एवं पूँजी लगाने हेतु पर्याप्त प्रतिफल मिलता रहे । आर्थिक क्षमता मात्र फार्म के उत्पादन के पैमाने पर ही नहीं मापी जाती है बल्कि यह क्षमता 'संसाधन संरक्षण एवं न्यूनतम जोखिम' में देखी जाती है ।


3. समाजोचित ( Socially Just ) -

समाजोचित का अर्थ है कि संसाधन एवं शक्ति का वितरण इस प्रकार हो कि समाज के प्रत्येक सदस्य की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके तथा उनमें भूमि के उपयोग, पर्याप्त पूँजी, तकनीकी सहायता एवं बाजार सम्भावनाओं जैसे अधिकार सुनिश्चित हों । सभी को खेत/फार्म तथा समाज में निर्णय लेने का अवसर हो, क्योंकि सामाजिक अस्थिरता कृषि क्षेत्र में समूचे सामाजिक तन्त्र को अस्थिर एवं असन्तुलित कर सकती है ।


4. मानवोचित ( Humane ) -

मानवोचित (सहृदय) का अर्थ है, सभी प्रकार के जीवन मानव, पशु, पक्षी ) का सम्मान । सभी लोगों के मौलिक अस्तित्व का सम्मान होता हो तथा सम्बन्धों में विश्वास, ईमानदारी, स्वगरिमा, सहयोग एवं सहिष्णुता जैसे मूल्यों का समावेश हो । समाज की सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक एकता संरक्षित तथा संबर्धित हो ।


5. ग्रहणीय ( Adoptable ) -

ग्रहणीय (अनुकूलनीय) का अर्थ है कि ग्रामीण समुदाय, फार्म की लगातार परिवर्तित होती परिस्थितियों (जनसंख्या वृद्धि, नीतियाँ, बाजार माँग आदि) में सामंजस्य बिठा सकें । इसमें मात्र नई एवं उचित तकनीकें ही नहीं अपितु सामाजिक एवं सांस्कृतिक विषयों से संबंधित नवाचार भी सम्मिलित हैं ।


स्थाई कृषि/टिकाऊ खेती विषय-क्षेत्र ‌‌

खेती के इस प्रकार एवं विधि को समझने के लिए इसके विषय - क्षेत्र को जान लेना आवश्यक है ।


इसके विषय क्षेत्र में प्रमुख रूप से सम्मिलित हैं -


1. खेती एवं प्रकृति की पारस्पारिकता का निर्धारण -

टिकाऊ खेती कृषि को प्रकृति के ऐसे अनुपम उपहार के रूप में देखती है जिसकी निरन्तरता प्रकृति के सानिध्य एवं सहयोग से ही संभव है । इस दृष्टि से खेती एवं प्रकृति की पारस्पारिकता के संवर्द्धन के उपाय खोजना एवं उन्हें खेती की विधियों के रूप में लागू करना टिकाऊ खेती का महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है ।


2. खेती की पर्यावरण अनुकूल विधियों प्रकार का विकास -

खेती मानवीय सभ्यता का प्राथमिक व्यवसाय है । जिसके सम्बन्ध में लम्बे समय तक मान्यता रही है कि इससे पर्यावरण को कोई हानि नहीं होती जबकि पर्यावरण प्रदूषण के लिए केवल उद्योगों को ही जिम्मेदार माना गया । किन्तु गत कुछ दशकों में हुए अनुसंधानों से यह स्पष्ट हुआ है कि खेती की अनेक विधियों से पर्यावरण की भारी हानि हुई है, जैसे - झूम खेती एवं अकार्बनिक निविष्टियों पर आधारित खेती । इनमें पहला, खेती का प्राचीन प्रकार है और दूसरा नवीन । खेती के ऐसे किसी भी प्रकार/विधि जिससे प्रकृति को हानि पहुँचती हो उसकी रोकथाम करना एवं उसके स्थान पर खेती के पर्यावरण अनुकूल प्रकार/विधि को विकसित एवं प्रचलित करना टिकाऊ खेती का एक अन्य महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है ।


3. खेती के स्वास्थ्यवर्धक उपायों का विकास -

खेती से हमे अन्न प्राप्त होता और अन्न हमारे जीवन की प्राथमिक आवश्यकता है । यदि यह अन्न प्रदूषित होगा तो इसका हमारे स्थूल एव सूक्ष्म स्वास्थ्य पर सीधा और प्रतिकूल प्रभाव अवश्य पडेगा । कहा भी गया है कि 'जैसा खाओगे अन्न वैसा होगा मन' अर्थात् अन्न के प्रभाव से हमारे जीवन की जीजिविषा तक प्रभावित होती है । ऐसे में स्वास्थ्यवर्धक अन्न उपजाने के ढंग ढूँढ़ना भी टिकाऊ खेती का एक प्रमुख क्षेत्र निरूपित किया गया है ।


4. विशिष्टिकृत खेती के स्थान पर एकीकृत खेती का विकास -

खेती से दशा एवं दिशा पर विचार करते हुए कृषि वैज्ञानिकों को मालूम पड़ा है कि खेती के आधुनिकीकरण के नाम पर जिस विशिष्टिकृत स्वरूप का विकास किया गया उसका आधार ऐसी कृषि निविष्टियाँ हैं जिन्हें रासायनिक व कृत्रिम रूप से निर्मित किया गया जैसे - रासायनिक खाद, रासायनिक कीटनाशक आदि । इनके दुष्प्रभाव से ही पर्यावरण एवं स्वास्थ्य को हानि पहुंची है । इसलिए खेती के ऐसे एकीकृत स्वरूप का विकास आवश्यक हो गया है जिसके अंतर्गत विभिन्न फसलें एक - दूसरे को सहयोग दें और बाह्य कृषि निविष्टियों की निर्भरता कम हो जाये ।


5. खेती में अन्य कृषक प्रक्रियाओं का समायोजन -

खेती को सतत आयोजन बनाने के लिए आवश्यक है कि खेती को पशुपालन, बागवानी, कृषि वानिकी आदि कृषि प्रक्रियाओं के साथ विकसित किया जाये । जिससे कि एक कृषक प्रक्रिया दूसरी कृषक प्रक्रिया की सहायक क्रिया बन सके और इन सभी में न्यूनतम अपव्यय हो । उदाहरण के लिए खेती एव पशुपालन के मिश्रित प्रकार में खेतों को पशुओं के मल - मूत्र से बनी उपजाऊ खाद मिलती है तो खेत अपव्यय भूसा आदि पशुओं के चारे का काम करता है ।


6. खेती को समग्र ग्राम प्रबन्धन के रूप में विकसित करना -

गत दशकों के अनुभवों से यह तथ्य भी स्पष्ट हुआ है कि खेती एवं ग्राम प्रबन्धन को भिन्न - भिन्न क्षेत्र मान कर विकास का प्रयास करना एक भारी गलती/भूल रही है । जबकि खेती का विकास ग्राम प्रबन्धन समग्र के एक अभिन्न अंग के रूप में किया जाना जरूरी है । उदाहरणस्वरूप, खेतों में नलकूप बनाकर सिंचाई करने से पूरे ग्राम के जल स्तर की हानि होती है जबकि गाँव में होने वाली वर्षा को एकत्रित कर जब पोखर/तालाब बनाया जाता है तो इससे गाँव की अनेक जल आवश्यकताओं की पूर्ति होती है और साथ ही खेतों को भी सिंचाई का जल मिल जाता है । इसी भाँति खेत में रासायनिक कीटनाशियों के छिड़काव से सारे गाँव का वातावरण प्रदूषित होता है जबकि मित्र कीटों के संवर्द्धन से पूरे गाँव में जैव विकास का चक्र बलवती होता है ।

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मानवीय इतिहास के आदिमानव काल से लेकर आधुनिक वैज्ञानिक युग तक कृषि के विकास की कहानी एक ओर उत्पादन वृद्धि तो दूसरी ओर वनस्पतियों के प्राकृतवास एवं पर्यावरण के विनाश का चित्रण है ।

वास्तव में, विकास की अंधी दौड़ में मनुष्य ने अपनी अन्यान्य आवश्यकताओं की पूर्ति एवं आमोद - प्रमोद के लिए दूरगामी दुष्परिणाम का चिन्तन किए बिना ही प्राकृतिक सम्पदा के अविवेकपूर्ण दोहन के द्वारा समूचे पारिस्थितिक तंत्र (ecological system) को अस्त - व्यस्त कर दिया है । इसके लिए मानव ने 'हरित क्रान्ति' जैसे सघन प्रयास के अंतर्गत अधिक उपज देने वाली फसलों की प्रजातियों, रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों, सिंचाई और आधुनिक कृषि उपकरणों एवं अन्य कृषि रसायनों के अतिशय उपयोग से कृषि को व्यावसायिक रूप प्रदान तो कर दिया परन्तु इन समस्त घटकों का अंधाधुंध प्रयोग करते हुए इनके पार्श्व प्रभावों पर कोई ध्यान नहीं दिया ।

परिणामस्वरूप, व्यावसायिक कृषि से एक ओर यदि उत्पादन में वृद्धि हुई तो दूसरी ओर इससे पर्यावरण असन्तुलन एवं सामाजिक विषमता में भी भारी वृद्धि हुई है । स्थानीय रूप से उपलब्ध बीजों, जैविक या कार्बनिक खादों के माध्यम से होने वाली परम्परागत खेती एवं पुराने कृषि उपकरणों से मृदा एवं पर्यावरण को कोई क्षति नहीं होती थी । इससे उपज तो निश्चित रूप से रासायनिक कृषि (chemical agriculture) की तुलना में कम होती थी, परन्तु पर्यावरण सन्तुलित बना रहता था । यद्यपि आज की कृषि के समान ही परम्परागत खेती में भी अनेक कमियाँ थीं ।


इस समय कृषि जनसंख्या के दबाव, मृदा उर्वरता, ह्रास, विकृत पर्यावरण एवं प्राकृतवास, ऊर्जा स्त्रोत संकुचन जैसी अनेक समस्याओं से ग्रसित है ।

अतः यदि समय रहते इस सर्वधाती समस्या के समाधान हेतु समुचित प्रयास नहीं किये गये तो भूमण्डल पर विविध रूपों में पनपा जीव अपना अस्तित्व नहीं बचा पायेगा । अत: आज आवश्यकता इस बात की है कि खेती की ऐसी प्रणाली को विकसित एवं प्रसारित किया जाय जो प्राकृवास को बिगाड़े बिना कृषि को स्थायित्व या स्थिरता प्रदान कर सके । निःसंदेह साठ के दशक के बाद कृषि उत्पादन में उल्लेखनीय प्रगति हुई है ।

परिणामतः देश कृषि - पदार्थों हेतु आत्मनिर्भर ही नहीं बल्कि निर्यातोन्मुख भी हुआ है, किन्तु इसके साथ ही मृदा विकार, प्रक्षेत्र उत्पाद में कीटनाशी अवशेष, कीटों में कीटनाशी सहिष्णुता, जीन - क्षरण (gene erosion), जल एवं वायु प्रदूषण, अनेक प्रकार की मनुष्यों एवं पशुओं की रोग व्याधियाँ जैसी समस्याओं में भी सर्वधाती रूप में वृद्धि होती रही है ।


इस प्रकार सम्पूर्ण प्राकृतवास (natural habitate) में विकृति आई है और जीवन - रक्षक परिस्थितियाँ भी ह्रासोन्तुख हुई हैं । वनवासी मानव ने स्थाई कृषि का प्रारम्भ किसी न किसी स्थाई जलस्त्रोत के ही समीप किया था । किन्तु आजकल समस्त जल स्त्रोत इस सीमा तक प्रदूषित हो चुके हैं कि अनेक जल जीवों की प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं ।

इस प्रकार वर्तमान में बढ़ती जनसंख्या एवं तीव्र गति से प्रकृति प्रदत्त उपहारों की गुणवत्ता हास के परिणामस्वरूप टिकाऊ खेती/स्थाई कृषि (sustainable agriculture in hindi) का विशेष महत्व है ।


टिकाऊ खेती/स्थाई कृषि में खरपतवार प्रबंधन की विधियां लिखिए? | weed control in sustainable farming in hindi


हरित क्रान्ति के बाद जैसे - जैसे कृत्रिम रसायनों का बोलबाला खेती में बढ़ा वैसे - वैसे टिकाऊ खेती/स्थाई कृषि में खरपतवार नियंत्रण के लिए भी अनेक खरपतवारनाशियों का विकास एवं प्रयोग बढ़ता गया ।

हरित क्रान्ति के मूल्यांकन में जब इसके पर्यावरणीय, पारिस्थितिकीय एवं स्वास्थ्य के क्षेत्र में गंभीर परिणाम पाये गये तो खरपतवार नियंत्रण की दूसरी विधियों को देखा/जाँचा गया ।

इसी कड़ी में टिकाऊ खेती/संपोषित कृषि प्रणाली ने खरपतवार नियंत्रण की अनेक सुरक्षित विधियों/तकनीकों का सफल उपयोग करना प्रारम्भ कर दिया है ।

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टिकाऊ खेती/स्थाई कृषि में खरपतवार प्रबंधन की विधियां लिखिए 

खरपतवार प्रबन्धन की विधियाँ लिखिए? | methods of weed management in hindi


टिकाऊ खेती/स्थाई कृषि में खरपतवार प्रबंधन की प्रमुख विधियां -

  • परम्परागत विधियाँ ( Traditional Methods )
  • आधुनिक विधियाँ ( Modern Methods )
  • टिकाऊ खेती की विधियां ( Sustainable Agricultural Methods )

उत्तम उत्पादन के लिए आवश्यक है कि खरपतवारों से फसल को होने वाली हानि को रोक दिया जाये अथवा यथासंभव कम कर दिया जाये । इसके लिए की गई शस्य क्रियायें ही खरपतवार प्रबन्धन कहलाता है ।


खरपतवार प्रबन्धन की विधियों को अनेक प्रकार से वर्गीकृत किया जाता है -

1. परम्परागत विधियाँ ( Traditional Methods ) -

मानव किसान के रूप में खरपतवारों की समस्या का सामना आदिकाल से ही करता रहा है इसलिए और इनके उन्मूलन/नियंत्रण के मानवीय प्रयास भी कृषि प्रारम्भ होने के साथ ही उदित हो गये थे । खेती की परम्परागत विधियों में निराई - गुड़ाई, जला देना, उखाड़ देना और चारे के रूप में खिला देना आदि सम्मिलित हैं ।


2. आधुनिक विधियाँ ( Modern Methods ) -

आधुनिक काल में विशेष रूप से हरित क्रांति के बाद जब रासायनिक उपायों को अपनाकर तेजी से उत्पादन बढ़ाने की होड़ लगी तो खरपतवार प्रबन्धन पर भी इसका प्रभाव दिखाई दिया और खरपतवारों पर शीघ्रता, सरलता और प्रभावी नियंत्रण के लिए अनेक रसायन व रोगाणु विकसित और प्रयुक्त किये जाने लगे ।


3. टिकाऊ खेती की विधियां ( Sustainable Agricultural Methods ) -

आज जब खेती के पूर्वगामी तौर-तरीकों की सफलता पर उंगली उठाई जाने लगी, परिणाम भी प्रतिकूल मिलने लगे और यहां तक कि इनके दुष्प्रभाव भी सामने आने लगे तो खेती के एक नए दर्शन एवं दृष्टि का विकास किया गया । जिसके अंतर्गत 'खेती प्राकृतिक के साथ' और 'खेती प्रकृति के सहयोग से' विकसित की जाने लगी ऐसे ही प्रणालीगत रूप में टिकाऊ खेती कहा जा रहा है ।

इसके अंतर्गत कृषि के लगभग सभी सस्य क्रियाओं में अमूल - चूल परिवर्तन किया गया है और इसी क्रम में खरपतवार नियंत्रण की भी नई नई विधियां सामने आ रही है । अथवा पुरानी वीडियो का नवीन रूपांतरण अपनाया जा रहा है विशेष रूप से इसके अंतर्गत फसल चक्र संशोधन, मिश्रित खेती, तलवार का उपयोग एवं जैविक गोल आदि का प्रयोग किया जा रहा है।


टिकाऊ खेती में खरपतवार प्रबन्धन | sustainable agricultural weed management in hindi


टिकाऊ खेती में खरपतवार प्रबन्धन की विधियां -

  • खरपतवार का प्रयोग खाद/पलवार के रूप में करना
  • बुआई के समय में परिवर्तन
  • खरपतवारों के बीच खेती

टिकाऊ खेती प्रकृति के साथ और प्रकृति के सहयोग से की जाने वाली खेती है । इसके अंतर्गत खेती का सिद्धान्त है - 'प्रकृति को अपना काम करने दो इसी से परिणाम सुखद होंगे ।'


टिकाऊ खेती में प्रमुख रूप से खरपतवार प्रबन्धन की निम्न विधियाँ महत्त्वपूर्ण हैं -

1. खरपतवार का प्रयोग खाद/पलवार के रूप में करना -

खरपतवार तभी नुकसान करती है जब वह फसल से ऊपर जाने लगे या उसमें फल या बीज बनने लगे । तभी उसे निकालने की जरूरत है । निकाल कर भी उस का खाद या भूमि ढकने (पलवार लगाने) में प्रयोग करना चाहिये । उसे खेत से बाहर फेंकने की जरूरत नहीं है । वैसे, इस तरह की खेती में खरपतवार की समस्या भी कम रहती है । एक तो इसलिये कि जुताई कम से कम की जाती हैं दूसरा कारण यह है कि रासायनिक खाद के प्रयोग से खरपतवार को सहज उपलब्ध पोषक तत्त्व एकदम से मिल जाते हैं जिससे वह तेजी से बढ़ती हैं । परन्तु कुदरती खेती में खरपतवार को इस तरह से यूरिया जैसा सहज उपलब्ध पोषक तत्त्व (जैसे मरीज को ग्लूकोस) नहीं मिलता इसलिये खरपतवार की समस्या कम रहती है ।


2. बुआई के समय में परिवर्तन -

पिछली फसल को काटने के पूर्व ही यदि नई फसल के बीज बो दिए जायेंगे तो इस फसल के बीज खरपतवार के पहले अंकुरित हो जायँगे । जाड़े की फसल के बीज चावल काटे जाने के बाद ही फूटेंगे, लेकिन तब तक जाड़े की फसल काफी उग आई होगी । गर्मी का खरपतवार जौ और राई की फए कटने के बाद अंकुरित हो जाता है, लेकिन उस समय तक चावल की फसल काफी बढ़ चुकी होती होगी । बीजों की बोनी इस ढंग से करें कि दोनों फसलों के बीच कोई अंतर न रहे । इससे अनाज के बीजों को खरपतवार से पहले ही अकुरित हो, बढ़ने का अवसर मिल जाता है । साथ ही, फसल कटनी के तुरन्त बाद खेतों में पुआल फैला देने में खरपतवार का अंकुरण बीच में ही रुक जाता है । अनाज के साथ ही भूमि आवरण के रूप में सफेद मेथी भी बो देने से खरपतवार को नियंत्रित रखने में मदद मिलती है ।


3. खरपतवारों के बीच खेती -

खरपतवार नियंत्रण की सर्वाधिक क्रांतिकारी विधि का प्रदर्शन करते हुए जापान के कृषि वैज्ञानिक मासानोबू फुकुओका अपनी पुस्तक 'एक तिनके से आई क्रांति' में लिखते हैं - “बीस साल पहले जब मैं अपने फल - बागों में स्थाई भूमि आवरण उगाने में लगा था, तब देश के किसी भी खेत या फल - बाग में घास का एक तिनका भी नजर नहीं आता था । मेरे जैसे बागानों को देखने के बाद ही लोगों की समझ में आया कि फलों के पेड़, घास और खरपतवार के बीच भी बढ़ सकते हैं । आज, नीचे घास उगे हुए फलबाग आपको जापान में हर कहीं नजर आ जाएँगे तथा बिना घास - आवरण के बागान अब दुर्लभ हो गए हैं । यही बात अनाज के खेतों पर भी लागू होती है । चावल, जौ तथा राई को, सारे साल भर, मेथी और खरपतवार से ढंके खेतों में भी मजे से उगाया जा सकता है ।"

इस विधि के अंतर्गत मेथी, जौ अथवा राई आदि का प्रयोग खेत को हरा भरा बनाने और खरपतवार के विकास के रोकने के लिए किया जाता है । इनके साथ जब मुख्य फसल जैसे - धान, गेहूँ आदि की छिद्र विधि से बीजाई की जाती है तो गेहूँ धान आदि फसलीय पौधे खरपतवार से ऊपर निकलकर लहराने लगते हैं और नीचे भूमि की सतह पर मेथी, जौ अथवा राई के साथ खरपतवार बने रहते हैं । इससे फसल की उपज में कोई विशेष गिरावट नहीं होती । जबकि भूमि पर उगे खरपतवार खेत की नमी को सूरज की धूप से एक प्राकृतिक आवरण के रूप में बचाये रखते हैं । )

"खेती का यह तरीका जापान की प्राकृतिक स्थितियों के अनुसार विकसित हुआ है, लेकिन मैं सोचता हूँ कि प्राकृतिक खेती को अन्य क्षेत्रों में अन्य देसी फसलें उगाने के लिए भी अपनाया जा सकता है । मसलन जिन इलाकों में पानी इतनी आसानी से उपलब्ध नहीं होता, वहाँ पहाड़ी चावल, ज्वार, बाजरा या कुटकी को उगाया जा सकता है । वहाँ सफेद मेथी की जगह मेथी की अन्य किस्म अल्फा - अल्फा, मोठ या दलहन खेतों को ढंकने के लिए ज्यादा अच्छे उपयोगी साबित हो सकते हैं । प्राकृतिक कृषि उस इलाके की विशिष्ट परिस्थितियों के मुताबिक अपना अलग रूप धारण कर लेती हैं, जहाँ उसका उपयोग किया जा रहा हो । इस प्रकार की खेती की शुरुआत करने से पूर्व कुछ थोड़ी निंदाई, छंटाई या खाद बनाने की जरूरत पड़ सकती है, लेकिन बाद में हर साल इसमें क्रमश: कमी लाई जा सकती है । आखिर में जाकर सबसे महत्त्वपूर्ण चीज कृषि तकनीक के बजाए किसान की मनस्थिति ही ठहरती है ।"

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टिकाऊ खेती पूर्व विधियों की असफलता लिखिए? | failure of pre sustainable agricultural methods in hindi

टिकाऊ खेती प्रणाली के विकास, प्रयोग एवं प्रचलन से पूर्व प्रयोग की जा रही परम्परागत एवं आधुनिक खरपतवार प्रबन्धन की विधियाँ अपनी किन्हीं कमियों/कमजोरियों के कारण असफल रही हैं ।


इनकी असफलताओं को निम्नानुसार देखा जा सकता है -

1. परम्परागत विधियों की असफलता ( Failure of Traditional Methods ) -

खरपतवार प्रबन्धन की परम्परागत विधियों में निराई - गुड़ाई सबसे अधिक लोकप्रिय रही है । इसमें मिट्टी की ऊपरी परत को बार - बार खुरचा - खोदा जाता है । इस विधि की हानि को मासानोबू फुकुओका अपनी पुस्तक 'एक तिनके से आई क्रांति  में समझाते हुए लिखते हैं -

“खरपतवार की समस्या से निपटने का प्रचलित तरीका मिट्टी को परिष्कृत करने का है, लेकिन जब हम ऐसा करते हैं तो मिट्टी के भीतरी गहरे बैठे हुए, वे बीज, जो वैसे अंकुरित नहीं होते, सजग होकर अंकुरित हो उठते हैं । साथ ही तेजी से बढ़ने वाली किस्मों को इन परिस्थितियों में बढ़ने का बेहतर मौका मिल जाता है । अत: आप कह सकते हैं कि जो किसान जमीन की जुताई - गुड़ाई करके खरपतवार को काबू में लाने का प्रयत्न करता है, वह वास्तव में अपने दुर्भाग्य से ही बीज बो रहा होता है ।"

साथ ही इससे मिट्टी की ऊपरी परत में मौजूद लाभकारी जीवाणुओं की हानि हो जाती है और मिट्टी को उपजाऊ बनाने की लाभकारी प्रक्रिया बाधित हो जाती हैं और साथ ही इससे भूमि की आवश्यक नमी को हानि पहुँचती है । खरपतवार को उखाड़कर जला देना भी हानिप्रद रहा है इससे वातावरण प्रदूषित होता है । खरपतवार को चारे के रूप में खिलाना भी कभी - कभी पशुओं के लिए जानलेवा हो जाता है ।


2. आधुनिक विधियों की असफलता ( Failure of Modern Methods ) –

खरपतवार प्रबन्धन की आधुनिक विधियाँ सर्वाधिक खतरनाक साबित हुई हैं । इसके अंतर्गत अनेक प्रकार के विषैले रसायनों का प्रयोग किया जाता है । जिन से जल, जीवन एवं जहान सभी कुछ दुष्प्रभावित होता है । वस्तुतः ये खतरनाक विषैले पदार्थ हैं जो लम्बे समय के लिए वातावरण को प्रदूषित कर देते हैं । इसे निम्न उदाहरण के द्वारा समझा जा सकता है ।

"अमेरिका से युद्ध के दौरान वियतनाम के सैनिक जंगलों में छुप गये थे । उनका पता लगाने के लिए अमेरिका ने अपनी वायुसेना की मदद से ‘एजेंट ओरेंज' नामक रसायन का छिड़काव किया । यह एक तीव्र एवं विषैला रसायन था । इसने जंगल की हरियाली को नष्ट कर दिया । इस दौरान लगभग एक करोड़ गैलन एजेंट ओरेंज का छिड़काव किया गया । इसका परिणाम यह के लाखों हेक्टेयर जंगल , उसकी हरियाली, जैव विविधता और जीव - जन्तु नष्ट हो गये । जो वियतनामी सैनिक और नागरिक इस रसायन के प्रभाव में आयें, उनकी हाल तक पैदा होने वाली पीढ़ी विकलांगता की शिकार हैं । आज उसी खतरनाक रसायन को ‘राउंड अप' नाम से प्रभावी खरपतवार नाशक के रूप में भारत के किसानों को बेचा जा रहा है ।" - आर० के० नीरद, 'जैविक खेती जमीन और जीवन दोनों की जरूरत', पंचायतनाम डॉट कॉम 

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