फसल चक्र से आप क्या समझते है इसके प्रमुख लाभ एवं सिद्धांत लिखिए

फसलों का एक निश्चित क्षेत्रफल में आवर्ती अनुक्रमण फसल चक्र (fasal chakra) कहलाता है । फसल चक्र (crop rotation in hindi) एक वर्ष से लेकर तीन या चार वर्ष का हो सकता है ।

फसल चक्र क्या है? | fasal chakra kya hain | crop rotation in hindi

फसल चक्र की परिभाषा - "किसी निश्चित क्षेत्र पर एक निश्चित अवधि तक फसलों को इस प्रकार हेर-फेर कर बोना, जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति को बनाये रखकर अधिक उत्पादन ले सकें फसल चक्र (fasal chakra) कहलाता है ।


फसल चक्र से आप क्या समझते है? | fasal chakra se aap kya samajhte hain

साधारणतया अपनाये जाने वाले फसल चक्रों को निम्नलिखित श्रेणियों में बाँटा जा सकता है -

  • वे फसल चक्र, जिनमें मुख्य फसल से पहले या बाद में खेती को परती छोड़ा जाता है, जैसे - परती-गेहूँ, धान-परती ।
  • वे फसल चक्र, जिनमें मुख्य फसल से पहले या बाद में हरी खाद उगाकर खेत में जोती जाये, जैसे - हरी खाद-गेहूँ, धान-हरी खाद
  • वे फसल चक्र, जिनमें वातावरण से नाइट्रोजन लेकर भूमि में एकत्र करने के लिए दलहनी फसलों का समावेश किया जाता है, जैसे - मूँग-गेहूँ, लोबिया-गेहूँ ।
  • भूमि की उर्वरा शक्ति की परवाह न करते हुए अनाज की फसल के बाद अनाज की फसल लेना, जैसे - धान-गेहूँ, मक्का-गेहूँ ।

फसल चक्र के क्या लाभ है? | fasal chakra ke labh

फसल चक्र के प्रमुख लाभ -

  • फसल चक्र से खेत की उर्वरा शक्ति बनी रहती है ।
  • फसल चक्र द्वारा भूमि से पोषक तत्त्वों तथा नमी का अवशोषण सन्तुलित रूप में होता है, क्योंकि उथली जड़ों वाली फसलों के बाद गहरी जड़ों वाली फसलें उगायी जाती हैं । इस प्रकार उन फसलों के बाद, जिन्हें पोषक तत्त्वों तथा नमी की कम आवश्यकता होती है, ऐसी फसलें उगायी जाती हैं । अतः भूमि तथा अवमृदा की उर्वरा शक्ति सन्तुलित रहती है ।
  • फसल चक्र में दलहनी फसलों का समावेश करने से मृदा की भौतिक दशा ठीक बनी रहती है और भूमि में जैव पदार्थ की कमी नहीं हो पाती है ।
  • खरपतवार, कीटों तथा रोगों के नियन्त्रण में सहायता मिलती है । एक ही फसल लगातार उगाने से उस पर कीटों तथा रोगों के पनपने की सम्भावना बढ़ जाती है और फसलों को हेर - फेर कर बोने से यह सम्भावना कम हो जाती है ।
  • फसलों की पैदावार बढ़ जाती है ।
  • फसल उत्पादों की गुणवत्ता में भी वृद्धि होती है ।
  • उपलब्ध साधनों, बीज, उर्वरक, पानी तथा श्रम का पूर्ण क्षमता के साथ उपयोग होता रहता है ।

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फसल चक्र से आप क्या समझते है इसके प्रमुख लाभ एवं सिद्धांत लिखिए


फसल चक्र के क्या सिद्धान्त है? | fasal chakra ke sidhant

कोई भी सस्य-क्रम योजना बनाने के लिये उसमें प्रयोग किये जाने वाले फसल चक्र (fasal chakra) को चुनने से पूर्व निम्नलिखित सिद्धान्तों को ध्यान में रखना चाहिए ।

फसल चक्र के प्रमुख सिद्धांत -

  • गहरी जड़ों वाली फसलों के बाद उथली जड़ों वाली फसलें उगानी चाहिये । (प्रायः ऐसी फसलें, जिनकी जड़ें मूसला होती हैं और भूमि में गहराई तक चली जाती हैं, अवमृदा अपनी खुराक खींचती हैं और भूमि की ऊपरी परत में अधिकांश पोषक तत्त्व ज्यों के त्यों ही रह जाते हैं । यदि गहरी जड़ों वाली फसल ही दुबारा खेत में बोयी जायेगी तो वह मिट्टी की एक विशेष परत से ही पुनः भोजन लेकर उसमें पोषक तत्त्वों की कमी कर देगी तथा फसल भी कमज़ोर होगी । यदि उथली तथा गहरी जड़ों वाली फसलें हेर - फेर कर बोयी जायें तो मिट्टी की भिन्न - भिन्न परतों में पौधों के भोजन की समानता बनी रहेगी तथा उसको पुनः उर्वरा शक्ति पाठी के की प्राप्त करने का अवसर मिलता रहेगा, उदाहरणार्थ - कपास के बाद मटर या गेहूँ ।)
  • अधिक खाद चाहने वाली फसलों के बाद कम खाद चाहने वाली फसलों को बोना चाहिए । (यदि अधिक खाद चाहने वाली फसल के बाद दुबारा फिर ऐसी ही फसल बो दी जाये तो खाद की आवश्यकता इतनी बढ़ जायेगी कि उसकी पूर्ति करना कठिन हो जायेगा । इसके अतिरिक्त बहुत - सी खाद, जो फसल नहीं ले पायेगी , भूमि में बेकार नष्ट हो जायेगीं अतः यदि अधिक खाद चाहने वाली फसल के बाद कम खाद चाहने वाली फसल बो दी जाए तो दूसरी फसल को कम साथ पिछली फसल की बची हुई खाद का भी सदुपयोग हो जायेगा । खाद देने की आवश्यकता पड़ेगी और साथ उदाहरणार्थ - आलू - मूँग, गन्ना - गेहूँ ।)
  • अधिक पानी चाहने वाली फसलों के बाद कम पानी चाहने वाली फसलों को बोना चाहिए । (ऐसा करने से एक तो सिंचाई के साधनों का अत्यधिक प्रयोग नहीं करना पड़ता और दूसरे भूमि में अधिक पानी बना रहने के कारण वायु संचार तथा का जीवाणुओं की क्रियाओं में जो बाधा पड़ती है, उससे भी बच ते हैं । उदाहरणार्थ - धान के बाद चना बोना चाहिए ।)
  • फलीदार फसलों के फसल बड़ी बाद बिना फलीदार फसल बोनी चाहिए । फसल चक्र में फलीदार फसल को अवश्य सम्मिलित कर लेना चाहिए क्योंकि इन पौधों द्वारा वायुमण्डलीय नाइट्रोजन का स्थापन किया जाता है । इस प्रकार फसल के कट जाने के बाद भूमि में काफी मात्रा में नाइट्रोजन रह जाती है, जिसका उपयोग दूसरी बिना फलीदार अनाज की आसानी से कर सकती है, उदाहरणार्थ - मूँग तथा लोबिया के बाद गेहूँ, चना के बाद ज्वार, मटर के बाद धान ।
  • फसल चक्र की सभी फसलें एक ही कुल की नहीं होनी चाहिए । ऐसा करने से जो कीट - पतंगे आक्रमण करते हैं, उनसे दूसरी फसल को बचाया जा सकता है ।
  • कृषि साधनों का वर्षभर क्षमतापूर्ण ढंग से उपयोग होना चाहिए । इस विषय में विशेष सावधानी बरतनी चाहिए । फसल चक्र बनाते समय उसमें फसलों का समावेश ऐसा होना चाहिये कि सिंचाई, उर्वरक, बीज, मजदूर, आदि जो भी अपने पास उपलब्ध हों, उनका पूर्ण उपयोग भी हो तथा अपनी आवश्यकता की सभी वस्तुयें , जैसे - अनाज, दाल, सब्जी, चारा, रेशा तथा रुपया भी समय - समय पर उपलब्ध होता रहे ।


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फसल चक्र का चुनाव कैसे करें?

किसी भी फसल चक्र (fasal chakra) को बनाने से पहले उसमें सम्मिलित की जाने वाली फसलों का सही चुनाव बहुत ही आवश्यक है ।


फसलों का चुनाव निम्नलिखित कारकों पर निर्भर करता है -

1. जलवायु -

  • वायु
  • आद्रता
  • वर्षा
  • तापमान
  • दीप्तिकाल

2. मृदा -

  • मृदा का प्रकार
  • मृदा का pH मान
  • मृदा में जीवांश पदार्थ
  • जल निकास

3. प्रबंध -

  • खाद तथा उर्वरकों की उपलब्धता
  • सिंचाई के पानी की उपलब्धता
  • शाकनाशी, कीटनाशी/रोगनाशी रसायनों आदि की उपलब्धता

4. आर्थिक पक्ष -

  • मांग
  • मूल्य


1. जलवायु -

जलवायु का फसलों की वृद्धि तथा वितरण पर बहुत प्रभाव पड़ता है । इसलिए जलवायु के अनुकूल फसलों का चुनाव करना आवश्यक है ।


2. मृदा -

फसलों का चुनाव मृदा गठन पर निर्भर करता है । भारी भूमि में धान, कपास, चना आदि फसलों को उगाना ठीक रहेगा । यदि भूमि हल्की हो तो मूँगफली, मक्का, ज्वार, गेहूँ, जौ, आदि फसलें उगाना चाहिये । गृदा के पी - एच मान तथा उसमें लवणों की मात्रा के अनुसार भी फसलों का चुनाव करना आवश्यक है । हल्की ऊसर भूमियों में धान, कपास, चुकन्दर, जौ, बरसीम, अलसी, आदि फसलें ही ली जा सकती हैं । हल्की अम्लीय (acidic) भूमि में ज , मक्का, गेहूँ तथा सोयाबीन उगाना उचित रहता है । इसी प्रकार नीची भूमियों (low lying lands) में धान तथा ऊँची भूमियों (uplands) में गेहूँ, जौ, मक्का, आलू, मटर, चना, सोयाबीन, आदि फसलें उगाना ठीक रहेगा ।


3. प्रबन्ध -

फसल चक्र के लिये फसलों का चयन बहुत कुछ फार्म पर उपलब्ध साधनों पर भी निर्भर करता है, जैसे कि उर्वरकों का पर्याप्त मात्रा में होना, सिंचाई के साधनों का होना, शाकनाशी तथा कीटनाशी रसायनों का उपलब्ध होना, श्रम की उपलब्धता आदि । कुछ फसलों, जैसे - टमाटर , आलू तथा कपास को उगाने के लिये अधिक मजदूरों की आवश्यकता होती है ।


4. आर्थिक पक्ष -

फसल चक्र में ऐसी फसलों को सम्मिलित किया जाए, जिनको बेचने की सुविधा हो, अर्थात उत्पादन की बाजार में अच्छी माँग हो और कृषक को उसे बेचकर अधिक से अधिक लाभ मिल सके ।


फसल चक्र की आधुनिक अवधारणा

फसल चक्र का मुख्य सिद्धान्त भूमि की उर्वरा शक्ति को बनाये रखते हुए फसलों को उगाना है । इसीलिए किसान अपनी भूमि का कुछ भाग परती छोड़ता था और अनाज की फसलों के साथ फसल चक्र में दलहनी फसलें सम्मिलित करता था । भूमि में जैव पदार्थ बनाए रखने के लिए हरी खाद की फसल उगाकर उसे खेत में जोतता था । आज के युग में जनसंख्या की अत्यधिक वृद्धि और खाद्यान्नों की कमी एक बड़ी समस्या बन गयी है । इस दशा में हम अनाज के अधिक उत्पादन पर बल दे रहे हैं, लेकिन ऐसा करना सम्भव नहीं हो रहा है ।

वास्तव में, फसल चक्र के मूल सिद्धान्तों का आज की उन्नत कृषि में पुनर्मूल्यांकन करने की आवश्यकता है । फसल चक्र के सिद्धान्तों के अनुसार कृषक को गहरी जड़ वाली फसलों के बाद उथली जड़ वाली फसलें, अधिक पानी तथा उर्वरकों की आवश्यकता वाली फसलों के बाद कम पानी तथा उर्वरक की आवश्यकता वाली फसलों की बात सुझायी गयी थी, जिससे मृदा की उर्वरा शक्ति बनी रहे और भूमि से प्राप्त पोषक तत्त्वों व जल का सन्तुलित रूप में उपयोग हो सके । पिछले कुछ वर्षों तक हम हरी खाद व भूमि को परती छोड़ने को फसल चक्र (fasal chakra) में बहुत ऊँचा स्थान देते थे ।

यह इसलिए कि हमारे पास उर्वरकों का अभाव था और भूमि की उर्वरा शक्ति को बनाए रखना आवश्यक था, परन्तु अब यह सिद्ध हो चुका है कि सन्तुलित रूप से उर्वरक देने तथा फसल अवशिष्टों (crop residues) के उचित प्रबन्ध से मृदा की उर्वरा शक्ति तथा जैव पदार्थ के अंश का अनुरक्षण किया जा सकता है ।

जहाँ तक खरपतवार, रोग व कीटों के नियन्त्रण का प्रश्न है, हमारे पास खरपतवारनाशी कवकनाशी व कीटनाशी रसायन उपलब्ध हैं, जिनका प्रयोग आर्थिक दृष्टि से लाभप्रद भी है । भूमि के अपरदन को भी रोकने यान्त्रिक साधन व तरीके हमें उपलब्ध हैं ।

ये सब बातें देखते हुए हम कह सकते हैं कि आज की वैज्ञानिक कृषि में फसल चक्र मूल सिद्धान्तों को आवश्यक रूप से अपनाना अनिवार्य नहीं रह गया है ।

हाँ, जिन स्थानों में उपरोक्त साधनों की कमी है, वहाँ इन्हें अवश्य अपनाना पड़ता है । आज किसान केवल वे ही फसलें उगाना चाहता है, जो उपलब्ध दशाओं में सबसे अधिक उपज देगी और आर्थिक दृष्टि से उपयुक्त होगी फिर भले ही ये फसलें अनाज की हों या दलहनी । इस प्रकार किसान को अपनी मनपसन्द वाली फसलें उगाने की अधिक स्वतन्त्रता होगी ।


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उत्तर प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलित फसल चक्र

शुष्क असिंचित क्षेत्रों में खरीफ में मक्का, ज्वार, बाजरा, कपास, उड़द, ग्वार, अरहर, तिल, अरण्डी व रबी के मौसम में जौ, चना, आदि फसलों को भूमि की किस्म व भूमि में नमी के स्तर के आधार पर उगाया जाता है । एक वर्ष में अधिकतर एक फसल उगाने के कारण इन क्षेत्रों में फसल चक्रों की सघनता (intensity) अधिकतर 100% रहती है ।

अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में खरीफ में धान , जूट व टैंचा तथा रबी में गेहूँ, जौ, चना, बरसीम आदि फसलें पैदा करते हैं । सिंचित क्षेत्रों में, जहाँ पर औसत वर्षा होती है, धान, गन्ना, मूँगफली, ज्वार, बाजरा, मक्का व मूँग आदि खरीफ में व रबी में गेहूँ, जौ, जई, आलू व प्याज आदि फसलें पैदा कर लेते हैं । इन क्षेत्रों में कस्बों व शहरों के समीप सब्जियों की फसल उगाते हैं । इन क्षेत्रों में फसल सघनता 200% रहती है ।

कृषक के पास सभी सुविधायें- खाद, सिंचाई, श्रम व पूँजी, आदि उपलब्ध होने पर सघन खेती अथवा बहुफसली फसल फसल चक्र जैसे, मक्का - आलू - गेहूँ - मूँग (एक वर्ष में चार फसलें) अपनाये जा सकते हैं । सिंचित क्षेत्रों में फसल चक्रों की सघनता 150-400% तक पाई जाती है ।


उत्तर प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में निम्नलिखित फसल चक्र अपनाये जाते हैं -

1. पश्चिमी उत्तर प्रदेश -

  • मक्का - आलू - गन्ना - पेड़ी - हरी खाद - गेहूँ
  • मक्का - गन्ना + गेहूँ - पेड़ी
  • मक्का - आलू - गन्ना - पेड़ी - गेहूँ
  • कपास - मटर बाजरा - चना
  • ज्वार - चना, परती - गेहूँ
  • ज्वार - मटर- गन्ना 
  • ज्वार + ग्वार- चना , बाजरा - मसूर
  • धान - मटर, धान - गन्ना
  • ज्वार + अरहर, परती - गेहूँ
  • मक्का- आलू, हरी खाद - गेहूँ
  • ज्वार - जौ, बाजरा + अरहर
  • मक्का - आलू- तम्बाकू
  • मूँग - मक्का - लाही - गेहूँ
  • मक्का - गेहूँ या जी
  • ज्वार - बरसीम
  • धान - गेहूँ या बरसीम
  • मक्का - आलू - प्याज
  • ज्वार - गेहूँ

2. उत्तर प्रदेश का मध्य क्षेत्र -

  • मक्का - आलू- गन्ना - पेड़ी
  • ज्वार + अरहर , परती - गेहूँ , ज्वार - बरसीम
  • मूँगफली + अरहर , गन्ना , मूँग - गेहूँ
  • धान - गेहूँ - बाजरा - गेहूँ
  • ज्वार + अरहर - गेहूँ
  • परती - गेहूँ , ज्वार - चना
  • मक्का - जौ , परती - गेहूँ
  • मक्का - आलू - गेहूँ , उर्द - गेहूँ
  • मक्का - आलू , तम्बाकू
  • मक्का – गेहूँ + चना
  • ज्वार + लोबिया - जौ
  • ज्वार - मक्का
  • मक्का - आलू - सूरजमुखी
  • तिल - अलसी
  • मंडुवा - गेहूँ + चना
  • मक्का - गेहूँ
  • बाजरा - जो

3. उत्तर प्रदेश का पूर्वी भाग -

  • धान - मटर - गन्ना - पेड़ी
  • ढैचा — गेहूँ - मक्का - तोरिया - गन्ना - पेड़ी
  • धान- चना, धान - जौ
  • धान - जौ, परती - गेहूँ
  • धान- मटर, परती - गेहूँ
  • ज्वार + अरहर, परती - जो
  • अरहर - गेहूँ, ज्वार - गेहूँ
  • ज्वार - मटर
  • परती - गेहूँ
  • ज्वार- बरसीम
  • ज्वार - जई
  • धान - खिसारी

4. बुन्देलखण्ड -

  • ज्वार + अरहर , परती - गेहूँ , तिल - अलसी
  • परती- सरसों , ज्वार + अरहर , मूँग - जौ
  • ज्वार + अरहर , गेहूँ
  • ज्वार - चना , परती - गेहूँ
  • परती - सरसों , ज्वार - चना
  • परती - गेहूँ
  • परती - गेहूँ + चना
  • ज्वार - चना
  • कौदों- चना
  • मंडुवा - मटर या चना

5. उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र –

  • हरी खाद - गन्ना - पेड़ी - गेहूँ
  • ज्वार - मटर - गन्ना - पेड़ी
  • हरी खाद - गेहूँ - गन्ना
  • मक्का - बरसीम , ज्वार- बरसीम
  • धान- चना , धान - मटर
  • ज्वार + लोबिया - जौ
  • हरी खाद - गेहूँ
  • सोयाबीन - गेहूँ
  • ज्वार - जौ
  • धान - गेहूँ
  • धान - गेहूँ - मक्का ( बसन्त )
  • धान - गेहूँ — मूँग

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