लवणीय-क्षारीय मृदायें (saline-alkaline soil in hindi) : लवणीय एवं क्षारीय मृदाओं में क्या अन्तर हैं

ऐसी मृदाएं सूखे, बंजर या कम वर्षा वाले क्षेत्रों में पाई जाती हैं इनका पी. एच. मान 7 (8.5 तक लवणीय) से अधिक होता हैं लवणीय-क्षारीय मृदाएं (saline-alkaline soil in hindi) कहलाती हैं ।

ऊसर मृदायें या लवणीय-क्षारीय मृदायें | saline-alkaline soil in hindi

"देश के विभिन्न भागों में ऊसर मृदाओं को रेह, कल्लर, बंजर, लवणीय क्षारीय मृदायें कहा जाता ।"

ऊसर भूमियाँ कृषि की दृष्टि से समस्या युक्त भूमियाँ हैं जिनके अन्दर विलेय लवणों या विनिमय सोडियम या दोनों की अधिकता पाई जाती है । इस प्रकार की मृदायें देश के शुष्क और अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों में पाई जाती हैं ।

भारत में लगभग 70 लाख हैक्टेयर क्षेत्र लवणता या क्षारता से प्रभावित है जो मुख्यतः उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, म० प्र०, गुजरात, महाराष्ट्र में फैला हुआ है ।

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लवणीय-क्षारीय मृदायें (saline-alkaline soil in hindi) : लवणीय एवं क्षारीय मृदाओं में क्या अन्तर हैं 

ऊसर मृदायें या लवणीय-क्षारीय मृदाओं के प्रकार | types of saline-alkaline soil in hindi


ऊसर भूमियों को निम्न तीन वर्गों में बाँटा गया है—

  • लवणीय मृदायें ( Saline Soils )
  • लवणीय - क्षारीय मृदायें ( Saline - Alkali Soils )
  • अलवणीय - क्षारीय मृदायें ( Non - Saline - Alkali Soils )


1. लवणीय मृदायें किसे कहते है?

इन मृदाओं में विलेय लवणों की अधिकता होती है । ये लवण अधिकांशतः सोडियम, मैग्नीशियम और कैल्सियम के क्लोराइड्स और सल्फेट्स होते हैं । मृदा के ऊपरी पृष्ठ पर एकत्र विलेय लवण सफेद पपड़ी (white crust) के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं । इन्हें सफेद ऊसर भी कहते हैं । इस मृदा का पी - एच 8.5 से कम होता है । विनिमय सोडियम 15% से कम पाया जाता है । 25°C पर मृदा के संतृप्त निष्कर्ष (saturation extract) की विद्युत चालकता चार मिलीमोज प्रति सेन्टीमीटर से अधिक होती है ।


2. लवणीय - क्षारीय मृदायें किसे कहते हैं?

इन मृदाओं में विलेय लवणों और विनिमय सोडियम दोनों की अधिकता होती है । मृदा पी - एच 8.5 से अधिक, विनिमय सोडियम 15% से अधिक तथा मृदा के संतृप्त निष्कर्ष की विद्युत चालकता 25°C पर 4 मिलीमोज (milli mhos) प्रति सेन्टीमीटर से अधिक होती है । इन मृदाओं का पी - एच परिवर्तनीय होता है ।


3. अलवणीय - क्षारीय मृदायें किसे कहते हैं?

इन मृदाओं को काला ऊसर भी कहते हैं क्योंकि विनिमय सोडियम की अधिकता से मृदा जीवांश पदार्थ विक्षेपित होकर भूमि की ऊपरी पृष्ठ पर जमा हो जाता है जिससे भूमि काले रंग की दिखाई देती है । इस मृदा में विनिमय सोडियम 15% से अधिक पाया जाता है , मृदा पी - एच 8.5-10 तक होता मृदा के संतृप्त निष्कर्ष की विद्युत चालकता 25° सेल्सियस पर 4 मिलीमोज प्रति सेमी० से कम होती है । लवणों में सोडियम कार्बोनेट की प्रधानता होती है । भूमि में नीचे कंकड़ की परत का होना इस मृदा का प्रमुख लक्षण है ।


लवणीय एवं क्षारीय मृदाओं में क्या अन्तर हैं | differences between saline and alkaline soil in hindi


लवणीय एवं क्षारीय मृदाओं में अन्तर -

  • लवणीय मृदाओं में घुलनशील लवण 0.2% से अधिक जबकि क्षारीय मृदाओं में घुलनशील लवण 0.2% से कम होते हैं ।
  • लवणीय मृदाओं में विनिमय सोडियम की मात्रा 15% से कम होती है जबकि क्षारीय मृदाओं में विनिमय सोडियम की मात्रा 15% से अधिक होती है ।
  • लवणीय मृदाओं में मृदा पी - एच 8.5 से कम जबकि क्षारीय मृदाओं में पी - एच 8.5 से अधिक होता हैं ।
  • लवणीय मृदाओं में मृदा के संतृप्त निष्कर्ष की विद्युत - चालकता 25°C पर 4 मिलीमोज/सेमी० से अधिक  जबकि क्षारीय मृदाओं में संतृप्त निष्कर्ष की विद्युत - चालकता 25°C पर 4 मिलीमोज/सेमी० से कम होती है ।
  • लवणीय मृदाओं में सोडियम क्लोराइड, सोडियम सल्फेट की प्रधानता होती है जबकि क्षारीय मृदाओं में सोडियम कार्बोनेट की प्रधानता होती है ।
  • लवणीय मृदाओं में यांत्रिक विधियों से सुधारा जा सकता है जबकि क्षारीय मृदाओं को यांत्रिक विधियों के साथ रासायनिक सुधारकों का भी प्रयोग करना पड़ता हैं ।


लवणीय-क्षारीय मृदायें बनने के क्या कारण हैं?


लवणीय-क्षारीय मृदायें बनने के निम्नलिखित कारण हो सकते हैं -

  • शुष्क जलवायु
  • त्रुटिपूर्ण जल निकास
  • लवणयुक्त पानी द्वारा सिंचाई
  • अधिक सिंचाई
  • उच्च भौम जल स्तर
  • क्षारीय उर्वरकों का अधिक मात्रा में प्रयोग


  • शुष्क जलवायु – शुष्क क्षेत्रों में वर्षा कम होने के कारण लवणों का निक्षालन (leaching) अधिक गहराई पर नहीं हो पाता हैं वष्पीकरण द्वारा मरता सतह पल्लवन संख्या में वृद्धि होती रहती है ।
  • त्रुटिपूर्ण जल निकास — भूमि में जल स्तर ऊँचा होने के कारण या भूमि में किसी कठोर तह की उपस्थिति के कारण वर्षा का पानी, जिसमें लवण घुले होते हैं, शोपित होकर नीचे गहराई पर नहीं जा पाता । इस प्रकार लवणों का निक्षालन नहीं हो पाता ।
  • लवणयुक्त पानी द्वारा सिंचाई - लवणीय पानी से अधिक समय तक सिंचाई करने से भूमि लवणीय या क्षारीय हो जाती है । पंजाब, हरियाणा, उ० प्र० में नहरी पानी से सिंचाई करने के कारण भूमि लवणीय होती जा ही है क्योंकि इस पानी में लवणों की मात्रा अधिक है ।
  • अधिक सिंचाई — अधिक पानी लगाने से जल स्तर ऊँचा उठने लगता है साथ ही लवणों की बड़ी मात्रा पानी लगाने से खेत में पहुँच जाती है ।
  • उच्च भौम जल स्तर - भौम जल स्तर मृदा के निकट रहने से समुचित जल निकास नहीं हो पाता जो लवण संचयन में सहायक होता है ।
  • क्षारीय उर्वरकों का अधिक मात्रा में प्रयोग - क्षारीय उर्वरक जैसे सोडियम नाइट्रेट उर्वरक का लगातार प्रयोग करने से भूमि क्षारीय हो जाती है ।
  • एक ही गहराई पर जुताई करते रहने से कठोर तह का निर्माण हो जाता है । जो लवणों के निक्षालन में बाधा उत्पन्न करती हैं ।
  • क्षारीय चट्टानों से निर्मित मृदायें क्षारीय होती हैं ।


लवणीय-क्षारीय मृदाओं का सुधार कैसे करें | how to improve saline-alkaline soil in hindi

ऊसर सुधार का कार्य कई कार्यों से जुड़ा है जिसमें क्षेत्र का चयन, मिट्टी का परीक्षण, मेंड़बन्दी, समतलीकरण, चक रोड, जल, सिंचाई व निकास नाली का प्रबन्ध, मृदा सुधारक रसायन प्रयोग, लीचिंग व फ्लशिंग सम्मिलित हैं ।

मिट्टी का परीक्षण कराने के बाद सर्वप्रथम मेंड़बन्दी करके खेत को समतल कर लेना चाहिये । मेंड़ 30 सेमी० ऊँची मजबूत बनायी जाये । मेंड़बन्दी का कार्य पूरा हो जाने के पश्चात् खेत को 15-20 सेमी० गहरा जोतकर लेवलर की सहायता से समतल कर लेना चाहिये और छोटे - छोटे टुकड़ों (1/15 है०) में बाँट लेना चाहिये । इसके बाद अप्रैल से जून में खेत में बार - बार पानी भरकर निक्षालन क्रिया करनी चाहिये । निक्षालन क्रिया के फलस्वरूप लवण पानी में घुलकर नीचे चले जाते हैं । ऊसर सुधार में जल निकास का बहुत अधिक महत्व है । जल निकास नाली खेत के हानिकारक घुलनशील लवणों को बाहर निकालती है । जल निकास नाली चक रोड के दोनों ओर खेत की सतह से 60-90 सेमी० गहरी 1.2 मीटर चौड़ी होनी चाहिये । निकास नालियों द्वारा लवणयुक्त पानी बहा दिया जाता है ।

सिंचाई नाली व निकास नाली का प्रबन्ध फरबरी से मार्च के अन्त तक कर लेना चाहिये । इसके बाद अप्रैल से जून तक मृदा सुधारक रसायन जैसे जिप्सम या पाइराइट या सल्फर का प्रयोग करना चाहिये ।

नोट:- मिट्टी परीक्षण के अनुसार ज्ञात जिप्सम या पाइराइट की मात्रा को खेत की ऊपरी सतह पर समान रूप से फैला देना चाहिये । जिप्सम तथा पाइराइट ( भूमि सुधारक ) सोडियम मृदा को कैल्सियम मृदा में परिवर्तित कर देते हैं ।


1. जिप्सम का प्रयोग -

जिप्सम के प्रयोग की दशा में उसकी फैलाने के बाद तुरन्त कल्टीवेटर या देशी हल से भूमि की ऊपरी 8-12 सेमी० की सतह में मिलाकर और खेत को समतल करके, पानी भर के रिसाव क्रिया (leaching) सम्पन्न करनी चाहिये । पहले हल्का पानी 4-5 सेमी ० लगाना चाहिये । जब पानी थोड़ा सूख जाये तो पुनः 12-15 सेमी० पानी भर कर छोड़ देना चाहिय । 7-8 दिनों बाद जो पानी बचे उसे जल निकास नाली द्वारा बाहर निकाल कर पुनः 12-15 सेमी० पानी भर कर रिसाव क्रिया सम्पन्न करनी चाहिये ।


2. पाइराइट का प्रयोग -

पाइराइट प्रयोग की दशा में भूमि अथवा मौसम का नम होना आवश्यक है । पाइराइट को खेत की क्यारियों में बिखेरने के बाद उसे एक सप्ताह के लिये ऑक्सीकरण क्रिया सम्पन्न होने हेतु छोड़ देना चाहिये और जब भूमि का रंग या पाइराइट का रंग बदलकर भूरा लाल जिंक की तरह हो जाये तो उसे कल्टीवेटर या रेक द्वारा भूमि की ऊपरी सतह में जिप्सम की तरह मिलाकर रिसाव क्रिया सम्पन्न करनी चाहिये ।

ऊसर सुधार हेतु गोबर, धान का पुआल, प्रेसमड, शीरा, गन्धक का तेजाब, आदि अन्य पदार्थों का भी प्रयोग किया जाता है । भूमि में सुधार होने पर लवण सहिष्णु फसलें , जैसे - जौ, धान, कपास, टेंचा, गेहूँ, बरसीम, आदि उगानी चाहिये ।

मृदा सुधारक रसायन के प्रयोग तथा लीचिंग के बाद शुरू के 2-3 वर्षों में धान की फसल को अनिवार्य रूप से लिया जाता है । उसके पश्चात् भूमि के थोड़ा सुधर जाने के बाद बाजरा, मक्का, तिल, गेहूँ, टेंचा लिये जा सकते हैं । यदि लवणों की मात्रा अधिक हो तो जौ बोयें । धान की रोपाई प्रजाति के अनुसार जून के अन्त से जुलाई के अन्त तक की जा सकती है । रोपाई 20x10 सेमी० की दूरी पर करें । एक स्थान पर 3-4 पौधे लगायें । धान की जया, साकेत -4 किस्म लवणरोधी है । धान से लवणयुक्त पानी को समय - समय पर निकालते रहें और साफ पानी भरते रहें । काई को नष्ट करने के लिये 0.2-0.3% कॉपर सल्फेट के घोल का छिड़काव करें । खैरा रोग की रोकथाम हेतु 40 किग्रा० जिंक सल्फेट/है० का प्रयोग रोपाई के पूर्व करें ।

जिंक को फॉस्फेटिक उर्वरक के साथ न मिलायें । नाइट्रोजन की मात्रा 15-20% बढ़ाकर प्रयोग करें । अम्लीय उर्वरक जैसे अमोनियम सल्फेट का प्रयोग करें । ऊसर भूमि में बबूल लगाने से 18-20 वर्ष में स्वतः ही सुधार हो जाता है ।


ऊसर भूमि पौधों के लिये क्यों घातक है?

लवणीय एवं क्षारीय मृदाओं में विलेय लवणों या विनिमय सोडियम की अधिकता के कारण अधिकांश पौधों की वृद्धि ठीक प्रकार से नहीं होती है । मृदा विलयन में विलेय लवणों के अधिक सान्द्रण (concentration) के कारण विलयन का रसाकर्षण दाब (osmotic pressure) पौधों कोशिकाओं में मिलने वाले विलयन के रसाकर्षण दाब की अपेक्षा अधिक होता है । परिणामस्वरूप पौधों की कोशिकाओं से पानी निकलकर अधिक सान्द्र मृदा विलयन (plasmolysis) में प्रवेश करने लगता है जिससे पौधे मुरझाकर नष्ट हो जाते हैं ।

विलेय लवणों की मृदा विलयन में अधिकता होने के कारण विलयन गाढ़ा रहता है इसलिये पौधों को पानी की कमी रहती है । पौधों के शरीर में विलेय लवण अधिक मात्रा में पहुँच जाते हैं जो हानिकारक होते हैं ।
क्षारीय भूमि में विनिमय सोडियम की अधिकता के कारण मृदा संरचना खराब हो जाती है । पौधों को Ca, Mg की कमी रहती है । वायु संचलन, पारगम्यता, सूक्ष्म जीव क्रियाशीलता मंद हो जाती है । इन मृदाओं में फॉस्फोरस Fe, Cu, Zn, Mn आदि पोषक तत्वों की प्राप्यता कम हो जाती है । अधिक pH के कारण पोषक तत्वों का सन्तुलन बिगड़ जाता है ।

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