मृदा अपरदन किसे कहते है (soil erosion in hindi) - यह कितने प्रकार का होता है

मृदा अपरदन किसे कहते है - जल एवं वर्षा के कारण मृदा का अपने स्थान से कटकर किसी दूसरे स्थान पर चले जाना ही मृदा अपरदन (soil erosion in hindi) कहलाता हैं ।

यह एक प्राकृतिक रूप से होने वाली भौतिक क्रिया का उदाहरण हैं जिसमे जल एवं वायु के प्रभाव के कारण मृदा कण स्थानांतरित हो जाते हैं ।

मृदा अपरदन का अर्थ | soil erosion meaning in hindi

मृदा अपरदन एक प्राकृतिक रूप से घटित होने वाली भौतिक प्रक्रिया हैं, जिसमे मृदा के कण अपने मूल स्थान से विलग होकर किसी अन्यत्र परिवहित हो जाते हैं ।

सरल शब्दों में मृदा अपरदन का अर्थ -

प्राकृतिक बलों द्वारा मृदा का कटाव होना ही मृदा अपरदन होता हैं इसे भूक्षरण या मृदा कटाव भी कहा जाता है ।

मृदा अपरदन किसे कहते हैं | soil erosion in hindi

वायु, जल प्रवाह एवं वर्षा की गिरती हुई बूंदों के प्रभाव के कारण "भूमि के कणों कटकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरित होना भूमि क्षरण या मृदा अपरदन कहलाता है ।

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मृदा अपरदन की यांत्रिकी | mechanics of soil erosion in hindi 

मृदा अपरदन एक जटिल प्रक्रिया है जिसको मोटे तौर पर दो चरणों में विभाजित कर सकते हैं - 

  • मृदा कणों का विलगन ( Detachment of soil particles ) 
  • विलगित कणों का परिवहन ( Transportation ) 

विलगन और परिवहन की क्रियाओं में गतिज ऊर्जा प्रयुक्त होती है जो दो स्रोतों से प्राप्त होती है - 

  1. वर्षा बूँदों एवं वायु तरंगों की संघाती ऊर्जा ( Impact energy ) 
  2. अपवाह (run-off) तथा वायु तरंगों की बहाव ऊर्जा ( Transport energy )


मृदा अपरदन कितने प्रकार का होता है | types of soil erosion in hindi

  • प्राकृतिक क्षरण या सामान्य क्षरण ( Natural Erosion )
  • त्वरित या मनुष्य कृत क्षरण ( Accelerated Erosion )


1. प्राकृतिक क्षरण या सामान्य क्षरण ( Natural Erosion )

इसे सामान्य क्षरण या भू-विज्ञानीय क्षरण भी कहते हैं । जब भूमि क्षरण प्राकृतिक रूप में हो रहा हो और मनुष्यों द्वारा किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप न किया गया हो । इसमें प्रायः भूमि निर्माणकारी एवं विनाशकारी क्रियायें साथ - साथ इस ढंग से चलती रहती हैं कि भूमि की दशा में पौधे की दृष्टि से अनुकूल सन्तुलन बना रहता है । इस क्षरण में केवल प्राकृतिक शक्तियों का ही सहज रूप से हस्तक्षेप होता है ।

2. त्वरित या मनुष्य कृत क्षरण ( Accelerated Erosion )

जन वृद्धि के साथ - साथ मनुष्यों की आवश्यकतायें बढ़ती गईं । अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये मनुष्यों ने वनों को काटकर, चरागाहों का विनाश कर, आग लगाकर भूमि को वनस्पति विहीन किया तथा फसलें उगाने के लिये दोषपूर्ण और अवैज्ञानिक कृषि प्रणालियाँ अपनाई जिसके फलस्वरूप भूमि की विनाशकारी क्रियायें निर्माणकारी क्रियाओं के अनुपात में तीव्रतर हो जाती हैं जिससे मृदा क्षरण अधिक होने लगता है । इसे ही मानवीय क्षरण (manmade erosion) या त्वरित क्षरण कहते हैं ।

त्वरित क्षरण के मुख्य कारण – वनों का विनाश, चरागाहों का विनाश, अनियन्त्रित चराई, विवर्तन कृषि या स्थानान्तरित खेती, दोषपूर्ण एवं अवैज्ञानिक कृषि प्रणालियाँ ।

त्वरित क्षरण वास्तव में भूमि क्षरण का मुख्य अंश है जो दो प्रतिकारकों के कारण होता है -

  • जल द्वारा क्षरण ( Water erosion )
  • वायु द्वारा क्षरण ( Wind erosion )

  • जल क्षरण या जलीय कटाव ( Water erosion ) - मृदा कणों का जल द्वारा कटाव एवं बहाव जल क्षरण कहलाता । जल द्वारा कटाव एवं बहाव मुख्य रूप से वर्षा की मात्रा, प्रचण्डता, अवधि, वर्षा की बूँदों का वेग एवं आकार, भूमि का ढाल, वनस्पति आच्छादन, भूमि के प्रकार, आदि बातों पर निर्भर करता है ।
  • वायु द्वारा क्षरण ( Wind erosion ) – शुष्क और अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में वायु द्वारा मृदा एक स्थान से काटकर दूसरे स्थान पर पहुँचा दी जाती है । मरुस्थलीय क्षेत्रों में वायु द्वारा क्षरण एक भयंकर समस्या है । इन क्षेत्रों में वनस्पतियों के अत्यन्त विरल होने के कारण वायु तीव्र और निर्बाध वेग से बहती है तथा भूमि पृष्ठ का अपघर्षण करती है । फलतः मिट्टी के कण कटकर वायु के प्रवाह द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानान्तरित हो जाते हैं ।


मृदा अपरदन से होने वाली हानियां | losses due to soil erosion

  • उपजाऊ भूमि का नष्ट होना - मृदा अपरदन के फलस्वरूप भूमि की ऊपरी सतह से अधिकतर पौधों के खाय तत्व, जीवांश पदार्थ व मिट्टी के महीन कण पानी के साथ बहकर नष्ट हो जाते हैं और इस प्रकार भूमि की उपजाऊ शक्ति नष्ट हो जाती है तथा फसल का उत्पादन कम हो जाता है ।
  • भूमि की अघोमृदा का खुलाव ( Exposure of Sub - soil ) - भूमि की ऊपरी सतह जल - क्षरण द्वारा नष्ट हो जाती है । उसके कारण भूमि की अघोसतह खुलकर ऊपर हो जाती है । नीचे की सतह कृषि कार्य के लिये उपयोगी नहीं होती क्योंकि इसमें पौधों के आवश्यक तत्व, जीवांश तथा जल धारण करने की क्षमता बहुत कम होती है, साथ ही इस सतह में अणुजीवियों की क्रियाशीलता नहीं पायी जाती है । नीचे की सतह प्रायः कठोर तथा भारी होती है । इसमें वायु संचार भी कम होता है । अधो - मृदा फसल उत्पादन के लिये बेकार होती है ।
  • भूमि नमी पर प्रभाव - वर्षा का अधिकांश जल अपधावन के रूप में नष्ट हो जाता है तथा कम मात्रा भूमि द्वारा शोषित होकर संचित हो पाती है । अतः फसल को पानी की कमी हो जाती है । साथ ही ऊपरी मिट्टी बहकर नष्ट हो जाती है । नीचे वाली अधो-मृदा में, कठोर होने के कारण जल को सोखने व धारण करने की क्षमता बहुत कम होती है । अतः जल-क्षरित भूमि में प्रायः नमी का अभाव होता है ।
  • कृषि योग्य उर्वरा भूमि पर बालू इत्यादि का जमाव - जल एवं वायुक्षरण द्वारा हटाये गये कण बालू प्रायः आस - पास की उर्वरा भूमि पर एकत्रित हो जाते हैं और उसकी उर्वरा शक्ति को घटाकर अनुत्पादक बना देते हैं । इस प्रकार छोटे कणों, रेत, कंकड़, आदि का जमाव पहाड़ों के तराई क्षेत्रों में देखने को मिलता है । शुष्क क्षेत्रों में बालू (sand), वायु द्वारा उर्वरा भूमियों पर जमा होकर भूमि को अनुत्पादक बना देती है ।
  • जलाशय, झीलों एवं नदियों का भराव (Silting of Lakes , Reserviors and Streams) – जल कटाव से बनी सभी अवनालिकायें किसी न किसी नदी से जुड़ी होती हैं । नदियों द्वारा लाया गया भूमि क्षरित पदार्थ मुख्यतः रेत, कंकड़, सिल्ट इन्हीं जलाशयों तथा झीलों में एकत्रित होता रहता है । इनके एकत्रित होने से इन जलाशयों तथा झीलों की पानी रोकने की क्षमता घटती जाती है । नदियाँ भी उथली हो जाती हैं । जहाज बन्दरगाह पर उथले पानी के कारण किनारे तक नहीं आ पाते हैं । नदियों की पानी रखने की क्षमता कम होने के कारण बाढ़ आ जाती है ।
  • भूमि जल सतह का नीचे हो जाना ( Lowering of water table ) - वर्षा का अधिकांश पानी अपधावन के रूप नष्ट होने के कारण भूमि के अन्दर पृष्ठीय जल स्रवण या परकोलेशन द्वारा नहीं पहुँच पाता । अतः धीरे - धीरे इन भूमियों की जल सतह नीची होती जाती है ।
  • कृषि कार्यों में बाधा - कटाव के कारण खेत ऊँचे - नीचे हो जाते हैं । अवनालिकाओं के निर्माण से खेत कई भागों में बँट जाते हैं और उनका आकार छोटा हो जाता है । इस प्रकार कृषि - क्रियाओं में बाधा उत्पन्न होती है ।
  • भूमि क्षरण का सड़कों एवं रेलों के रास्तों पर प्रभाव - वर्षा ऋतु में कभी - कभी अधिक अपधावन सड़कों व रेलों की पटरियों को नष्ट करता हुआ बहता है । हमारे देश में प्रति वर्ष वर्षा ऋतु में हजारों मील मार्ग इस प्रकार नष्ट होते हैं और उन पर अधिक व्यय होता है ।
  • सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति पर प्रभाव - मृदा क्षरण से मृदा की उपजाऊ शक्ति नष्ट होती है । फलस्वरूप फसलों की उपज कम होती है । अतः किसानों की आर्थिक दशा खराब हो जाती है । भू - क्षरण से प्रभावित जमीन की कीमत कम हो जाती है । ऊँची - नीची भूमि का दृश्य भी आकर्षक नहीं होता । इस प्रकार की भूमि में फसल उगाने पर लागत व्यय भी अधिक आता है ।
  • बाढ़ आना - प्रचण्ड वर्षा से नदियों में बाढ़ आ जाती है क्योंकि भूमि द्वारा अधिकांश पानी का शोषण नहीं हो पाता । बाढ़ का बहुत बड़ा विनाशकारी प्रभाव होता है । फसलें, आवागमन व संचार के साधन नष्ट हो जाते हैं । सम्पत्ति को नुकसान पहुंचता है । अधिक जल भरा रहने से रोगों का संक्रमण बढ़ जाता है ।


मृदा क्षरण या मृदा अपरदन के मुख्य अभिकर्त्ता -

भूक्षरण की क्रिया में सक्रिय रूप से भाग लेने वाले मुख्य अभिकर्ता जल, वायु, गुरुत्वाकर्षण और हिमनद हैं । जल वर्षा बूँदों के भूमि पृष्ठ पर संघात द्वारा तथा पृष्ठ वाह (sheet flow or surface flow), सरिता बहाव (stream flow) एवं तरंगों की क्रिया द्वारा मिट्टी का क्षरण करता है ।

वायु की तरंगें भूमि पृष्ठ का अपघर्षण (abrasion) करती हैं और महीन कणों को अपनी तरंगों में दूर - दूर तक उड़ा ले जाती हैं । गुरुत्वाकर्षण बल के फलस्वरूप शैलों एवं मिट्टी का नीचे की ओर स्खलन होता है और वे इस प्रकार क्षीण होती रहती हैं । हिमानी पर्वतीय क्षेत्रों में हिमनदों (glaciers) की पर्वतीय ढालों पर गति के कारण बड़े - बड़े शिलाखण्ड विचूर्णित हो जाते हैं ।

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