केले की खेती (kele ki kheti) कैसे की जाती है, पूरी जानकारी | Farming Study

  • केले का वैज्ञानिक नाम (Botanical Name) - Musa sapientum (Banana), Musa paradisiaca (Plantain)
  • केले का कुल (Family) - मुसेजी (Musaceae)
  • गुणसूत्र संख्या (Chromosomes) - 2n=33

केला भारत के प्राचीनतम फलों में से एक है तथा आम के बाद केले की खेती (kele ki kheti) दूसरी महत्वपूर्ण फसल है ।

भारत में आम के बाद केले दूसरा सबसे महत्वपूर्ण फल है । केले की फल के रूप में खाये जाने वाली जातियों को प्राय: "बनाना" व सब्जी के रूप में प्रयोग की जाने वाली जातियों को “प्लानटेन" कहा जाता है ।

ईसा से 500 - 600 वर्ष पूर्व पाली बौद्ध ग्रन्थों में केले की खेती का वर्णन मिलता है । मैगस्थनीज आदि के वर्णनों में सिकन्दर द्वारा केले के बनों को 327 ईसा पूर्व, सिन्धु घाटी में देखने का उल्लेख मिलता है ।


केले की खेती से लाभ एवं केले के उपयोग

केले के फलों का प्रयोग फल व सब्जी के रूप में तथा बेबीफूड, आटा, चटनी, फिंगर चिप्स एवं जैम आदि बनाने में किया जाता है । तनों का रेशा पेपर बोर्ड व टिशू पेपर आदि बनाने में तथा पौधे व पत्तियों को विभिन्न शुभ अवसरों पर प्रयोग में लाया जाता है ।


केले का वानस्पतिक विवरण

केला एक बीजपत्री, मुसेजी कुल का शाकीय पौधा है । इसका तना (राइजोम) भूमिगत होता है तथा इससे इनके अन्त: भूस्तारी निकलते है ।

भूमि के ऊपर रहने वाला तना पर्णवृन्तों के समूह से बनता है जिसे आभासी तना (स्यूडो स्टेम) कहते हैं । इस आभासी तने पर पत्तियाँ होती है । पुष्पक्रम आभासी तने से निकलकर भूमि की ओर लटके होते हैं ।


केले का उत्पत्ति स्थान एवं इतिहास

केले की उत्पत्ति उष्णीय, दक्षिणी - पूर्वीय एशिया के सम्भवत: आसाम, बर्मा व इन्डो - चाइना क्षेत्र में हुई । विश्व में केले की खेती (kele ki kheti) मैक्सिको, गवाटेमाला, पनामा, बाम्बिया, ब्राजील, मिस्र, नाइजीरिया, फिजी, हवाई, ताइवान, इन्डोनेशिया, दक्षिणी चीन, भारत, बांग्लादेश, श्रीलंका, आस्ट्रेलिया, फिलीपीन्स आदि देशों में की जाती है ।


भारत में केले की खेती का इतिहास

भारत में केले की खेती (kele ki kheti) लगभग 280, 000 हैक्टेयर क्षेत्रफल में की जा रही है तथा वार्षिक उत्पादन लगभग 4626000 टन है ।


केले की खेती सबसे ज्यादा कहां होती है?

भारत में केले का उत्पादन करने वाले प्रमुख राज्य - महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, उड़ीसा, पश्चिमी बंगाल तथा आसाम केला उत्पादन करने वाले प्रमुख राज्य है ।


केले की खेती के लिए उचित जलवायु

केला उष्ण जलवायु का पौधा है । केले की खेती (kele ki kheti) भारत के पूर्वी व पश्चिमी घाटों सफलतापूर्वक की जा सकती है । सम्पूर्ण वर्ष गर्म तर एवं अधिक वर्षा वाली जलवायु इसके लिए सर्वोत्तम है ।


केरल एवं तमिलनाडु में केले की खेती के लिए जलवायु क्षेत्र

भारत में केले की खेती के लिये सबसे उपयुक्त क्षेत्र केरल, तमिलनाडु का दक्षिणी भाग व बंगाल का पूर्वी भाग है । यहाँ उचित प्रकार से वितरित लगातार आठ माह अप्रैल से नवम्बर तक वर्षा होती है । इसके पश्चात् भी कभी - कभी वर्षा होती रहती है ।


उत्तर भारत में केले की खेती के लिए जलवायु क्षेत्र

केला मध्य व उत्तरी भारत के शुष्क क्षेत्रों में नहीं हो पाता है, जहाँ ग्रीष्म ऋत में गर्म हवायें चलती है तथा शीत ऋतु में पाला पड़ता है । उत्तर प्रदेश में यह बहुत कम क्षेत्रों में, जहाँ वर्षा अधिक होती है तथा सदियाँ भी हल्की पड़ती है, उगाया जाता है । यह नैनीताल के हल्द्वानी क्षेत्र, सहारनपुर, हरिद्वार व गोरखपुर के कुछ क्षेत्र में उगाया जाता है ।

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केले की खेती के लिए उपयुक्त मिट्टी

केले की खेती (kele ki kheti) के लिये गहरी उर्वरक, अधिक जलधारण करने वाली, जीवांश युक्त मिट्टी उत्तम होती है । भारत की सभी कृषि योग्य मिट्टियों, जो पर्याप्त गहरी, उपजाऊ तथा अच्छे जल निकास वाली हो में केला सुगमतापूर्वक उगाया जा सकता है ।

यद्यपि केला अधिक पानी चाहने वाला पौधा है परन्तु अनचित जल निकास वाली मिट्टियों में यह नहीं उगाया जा सकता है । केले के लिये मिट्टी की गहराई 1 मीटर होनी चाहिए । यह व्यापारिक रूप से कावेरी डेल्टा की भारी मटियार, गंगा डेल्टा की एलयुविअल, महाराष्ट्र की काली दोमट, समुद्री किनारे की रेतीली दोमट तथा केरल की लाल लेटेराइटिक मिट्टियों में सफलतापूर्वक उगाया जा रहा है ।


केले की खेती कैसे करें? | kele ki kheti kaise kare? 

केले का फल पोषण की दृष्टि से बहुत शक्तिशाली माना गया है । 
केला खनिज पदार्थों तथा विटामिन्स का प्रमुख स्रोत है, इसमें लगभग 20% शकर पायी जाती है, जो शक्ति का उत्तम स्रोत है इसमें विटामिन ए, बी तथा सी उचित मात्रा में पाये जाते हैं ।

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केले की उन्नत किस्में

भारतवर्ष में केले की 300 से अधिक जातियों का उल्लेख मिलता है परन्तु इनमें से बहत - सी किस्में विभिन्न क्षेत्रों में अलग - अलग नामों से जानी जाती है । इस प्रकार इसकी किस्मों की वास्तविक संख्या 70 के लगभग है ।

केले की प्रमुख उन्नत किस्में -

  • पूवन
  • ड्वार्फ केवेन्डिस
  • हरीछाल
  • रसथली
  • नेन्द्रन
  • लाल केला
  • सफेद बेलची
  • ग्रास मिचेल
  • Co.1. बनाना


भारत में बोई जाने वाली केले की उन्नत किस्में एवं उनकी विशेषताएं

भारत में केले की खेती में उगाई जाने वाली किस्मों का वर्णन निम्नलिखित है -


1. पूवन –

पश्चिम बंगाल में चम्पा, महाराष्ट्र में लाल वेलची, आंध्र प्रदेश में करपूरा चक्र केली - यह फल के रूप में खायी जाने वाली, पश्चिमी बंगाल, तमिलनाड एवं केरल की बहत महत्वपूर्ण जाति है । पौधे बड़े, कठोर तथा पत्तियों का मध्य शिरा का बाहरी भाग गलाबी होता है । फल मध्यम से छोटे, पकने पर पीले छिलके वाले तथा गूदा सख्त व खटास युक्त मीठा होता है और भंडारण क्षमता अच्छी होती है ।  यह पनामा विल्ट के लिये पूर्ण प्रतिरोधी तथा बन्ची टॉप रोग के लिए आंशिक प्रतिरोधी है । गुच्छे का औसत भार 15 कि० होता है ।

2. ड्वार्फ केवेन्डिस - 

महाराष्ट्र में बसराई ड्वार्फ, पश्चिम बंगाल में काबुली, आंध्र प्रदेश में वामन केली - यह महाराष्ट्र में व्यापारिक रूप से उगायी जाने वाली जाति है । पौधे नाटे, फल बड़े व मुड़े हुए, छिलका मोटा तथा हरापन लिये पीला, गूदा मुलायम एवं मीठा होता है । यह पानाम विल्ट के लिये प्रतिरोधी व बन्ची टॉप तथा पर्णचिन्ती रोगों से प्रभावित होती है । भंडारण क्षमता अच्छी नहीं होती है । गुच्छे का औसत भार 20 कि० होता है ।

3. हरीछाल -

महाराष्ट्र में बम्बई हरी, तमिलनाडु में रोबस्टा - यह मध्यम ऊँचाई वाली महाराष्ट्र की प्रमुख दूसरी जाति है । फल बड़े, छिलका मोटा व हरे से हल्का पीले रंग वाला, गूदा मृद व मीठा होता है । भंडारण क्षमता मध्यम होती है । गुच्छे का औसत भार 20 कि० होता है ।

4. रसथली -

पश्चिम बंगाल में मर्तभान, महाराष्ट्र में मुथेली, केरल में सोन केला तथा बिहार में मालभोग - पश्चिम बंगाल की ताजे फल के रूप में खायी जाने वाली प्रमुख जाति है । पौधे लम्बे, डंठल लालिमायुक्त होते है । फल मध्यम आकार के, छिलका पतला व पीले रंग वाला, गूदा सख्त, मीठा तथा सुगन्धित होता है । यह पनामा विल्ट से प्रभावित होने वाली जाती है । गुच्छे का औसत वजन 12 किलो होता है ।

5. नेन्द्रन -

महाराष्ट्र में रेजली - यह जाति प्लानटेन के रूप में जानी जाती है । फल लम्बे तथा मोटे होते है । भंडारण क्षमता बहुत अच्छी होती है । गुच्छे का औसत भार 15 कि होता है ।

6. लाल केला -

तमिलनाडु में चेन के डाली, बिहार में अनुपात - यह जाति पूरे संसार में उगायी जाती है । आभासी तने, डंठल, मध्य शिरा तथा फल के छिलके का रंग बैंगनी - लाल होता है । फल अच्छे आकार के तथा सुगंधित होते है । गुच्छे का औसतन भार 20 कि० होता है।

7. सफेद बेलची -

महाराष्ट्र में सोनेरी, तमिलनाडु में नेपूवन - दक्षिण भारत में यह नारियल के मध्य में उगायी जाती है । पौधे मध्यम ऊँचाई के होते है । आभासी तने का रंग पीला तथा डंठल का किनारा लाल होता है । फल छोटे व गूदा सख्त तथा मीठा होता है । गुच्छे का औसत भार 12 किलो होता है ।

8. ग्रास मिचेल -

संसार में फल की तरह खायी जाने वाली जातियों में यह जाति बहुत अच्छे गणों वाली है । यह पनामा विल्ट से प्रभावित होने वाली जाति है । फल, आकार, सुगंध, छिलके का रंग आदि की दृष्टि से अति उत्तम होते हैं ।

9. Co. 1. बनाना -

यह संकर जाति, तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय कोयम्बटूर द्वारा विकसित की गई है । यह जाति फलने में 14 माह का समय लेती है । गुच्छे का औसत भार 10 किलो होता है तथा गुच्छे में फलं की संख्या 80 - 85 होती है ।


केले की अन्य के जातियां - 

  • काँच केला
  • पहाड़ी केला
  • कुनान
  • अमृत सागर
  • चक्रकेली
  • जायन्ट गवर्नर
  • पाचा नादान
  • मानन
  • पेयान
  • चिंगन
  • हजार
  • कंथाली आदि अन्य मुख्य जातियाँ है ।


केले में प्रर्वधन किस प्रकार होता है?


केले में प्रवर्धन की विधियां -

  • अंत भूस्तारी (संकर)
  • भूमिगत तने (रायिजोम) द्वारा
  • टिशू कल्चर

केले की नर्सरी कैसे तैयार करें?

1. अंत भूस्तारी (संकर) - 

अन्त: भूस्तारी भूमिगत तने (राइजोम) से काफी संख्या में निकलते हैं ।

ये दो प्रकार के होते है -

  • सोर्ड सकर (पत्तियों वाली संकर) - प्रकार की अन्त: भूस्तारी ताकतवर, नीचे मोटी व ऊपरी भाग में पतले तथा पतली तलवार जैसी पत्तियों वाली होते हैं । ऐसा विश्वास किया जाता है, कि ये बहुत अधिक प्रबल, शीघ्र वृद्धि करने वाले और अल्प आयु में ही उपज देने वाले होते हैं । प्रवर्धन के लिये अधिकतर इसी प्रकार की अन्त: भूस्तारी का प्रयोग किया जाता है ।
  • वाटर सकर (चौड़ी पत्तियों वाली सकर) - ये अपेक्षाकृत कम मोटी सतह वाले होते है तथा इनकी पत्तियाँ चौड़ी होती हैं । ये अन्त: भूस्तारी कम वृद्धि करते है एवं इन पर देर से तथा कम उपज प्राप्त होती है ।


2. भूमिगत तने (राइजोम) द्वारा – 

कभी अन्त: भूस्तारी रोपण के लिये उपलब्ध नहीं होते या किसी नई जाति को शीघ्रता से बढ़ाना हो तो राइजोम का प्रयोग किया जाता है । प्रवर्धन के लिये पूरा राइजोम या उसके टुकड़े प्रयोग में लाये जाते हैं । टुकड़े करते समय यह ध्यान में रखना चाहिये कि प्रत्येक टुकड़े पर कम से कम एक कलिका अवश्य होनी चाहिए । इस विधि से प्रवर्धित पौधे अपेक्षाकत फलने से अधिक समय लेते हैं ।


3. टिशु कल्चर -

इस विधि द्वारा रोपण हेतु बीमारी रहित पौधे शीघ्रता से तथा अधिक संख्या में तैयार किये जा सकते है । अभी यह तकनीक प्रयोगशाला तक सीमित है । शीघ्र ही व्यापारिक कृषि में इसके प्रयोग की सम्भावना है ।


केले की खेती कब ओर कैसे की जाती है?

केले की नर्सरी रोपण का समय मुख्यतया जलवायु पर निर्भर करता है । अधिक सर्दी व अधिक वर्षा वाले समय को छोड़कर केला वर्ष भर लगाया जा सकता है । मालावार में सितम्बर - अक्टूबर में, ट्रावनकोर में दिसम्बर में, दक्षिणी भारत में पहाड़ी ढलानों पर फरवरी - मार्च में, कावेरी नदी के किनारे के क्षेत्रों में अप्रैल में केला लगाया जाता है ।


केले के पौधे लगाने का उचित समय

पश्चिम बंगाल में गंगा के मैदान में फरवरी तथा अगस्त केला लगाने का उचित समय है ।


केले का पौधा कैसे लगायें?

रोपण के लिये भूमि को गहरा जोतकर समतल कर लेना चाहिये । पौधों का आपसी अन्तर जाति, स्थान, भूमि की उर्वरता आदि पर निर्भर करता है । अधिक बढ़ने वाली जातियों को 2.5 से 3 मी० के अन्तर पर रोपा जाता है । सघन रोपण करने से यद्यपि उपज अधिक प्राप्त होती है परन्तु गुच्छे का आकार घट जाता है तथा बीमारियों का प्रकोप अधिक होता है ।

रोपण के लिये उचित दूरी पर 50x50x50 से० मी० आकार के गढढे खोद दिये जाते हैं । इनमें खाद व मिट्टी को मिलाकर भरने के पश्चात् रोपण कर दिया जाता है । रोपण करते समय सकर की ऊँचाई 90 से०मी० उचित रहती है । राइजोम लगाते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि इसकी वृद्धि वाला भाग ऊपर की तरफ रहे ।


केले की खेती में सिंचाई की आवश्कता

केले की खेती (kele ki kheti) में पानी की आवश्यकता भूमि, जलवायु जाति तथा कषि के प्रकार पर निर्भर करती है । यदि वर्षा नहीं होती है तो रोपण के तुरन्त बाद सिंचाई कर देनी चाहिये । भूमि को कभी भी सखने नहीं देना चाहिए ।

भारत में पश्चिमी तटीय भागों में अधिक वर्षा होने के कारण केला बिना सिंचाई किये उगाया जाता है । बिहार में दिसम्बर से जून तक प्रति दसवें दिन सिंचाई करनी चाहिये । महाराष्ट्र में अक्टूबर से फरवरी तक, 15 दिन के अन्तर पर तथा मार्च से मई तक, 6 - 8 दिन के अन्तर पर सिंचाई करनी चाहिए ।


केले की खेती में खाद एवं उर्वरक का प्रयोग

केले के लिए पोषक तत्वों की बहुत आधक मात्रा में आवश्यकता होती है । दिये जाने वाले पोषक तत्वों की मात्रा, जाति, भूमि की उर्वरता, पौधे की अवस्था तथा जलवायु पर निर्भर करती है । मुख्य पोषक तत्वो में नाइट्रोजन, फास्फोरस तथा पोटाश का विशेष महत्व है ।

इसमें पोटाश की बहत अधिक मात्रा में तथा फास्फोरस की अपेक्षाकृत कम मात्रा में आवश्यकता होती है । कैल्शियम, मैग्नीशियम और सूक्ष्म पोषक तत्वों की भी आवश्यकता कभी - कभी होती है ।


तमिलनाडु में केले की खेती के लिए खाद एव उर्वरक

तमिलनाडु में केले की खेती के लिये - प्रति हैक्टेयर 110 कि० नाइट्रोजन, 35 कि० फास्फोरस तथा 330 कि० पोटाश की आवश्यकता होती है ।


केरल में केले की खेती के लिए खाद एव उर्वरक

केरल में केले की खेती के लिए - 225 ग्राम नाइट्रोजन, 225 ग्राम फास्फोरस तथा 225 ग्राम पोटाश प्रति पौधा उचित पायी गयी ।


कर्नाटक में केले की खेती के लिए खाद एव उर्वरक

कर्नाटक में केले की खेती के लिए - प्रति हैक्टेयर 336 कि० नाइट्रोजन , 224 कि० फास्फोरस तथा 224 कि० पोटाश की आवश्यकता होती है ।


महाराष्ट्र में केले की खेती के लिए खाद एव उर्वरक

महाराष्ट्र में केले की खेती के लिए - 350 कि० नाइट्रोजन तथा 175 कि० पोटाश प्रति हैक्टेयर उपयुक्त पायी गयी (वेलाइनथाम, 1972) ।


असम में केले की खेती के लिए खाद एव उर्वरक

असम में केले की खेती के लिए - ड्वार्फ केवेन्डिस जाति के लिये 600 कि० नाइट्रोजन, 320 कि० फास्फोरस और 320 कि० पोटाश देने से अच्छी उपज प्राप्त हुई (शर्मा एवं राय, 1972) ।


गुजरात में केले की खेती के लिए खाद एव उर्वरक

गुजरात में केले की खेती के लिए - बसराई व हरी छाल जाति के लिये 180 ग्राम नाइट्रोजन, 180 ग्राम फास्फोरस तथा 180 ग्राम पोटाश प्रति पौधा सर्वोत्तम पायी गयी (चुड़ावत, 1980) ।

केले की खेती (kele ki kheti) में खाद व उर्वरक की मात्रा रोपण करते समय से पाँचवें माह तक तीन बार में दी जानी चाहिये ।


केले की खेती में अन्तरासस्य

केरल में केले के साथ सुपारी की मिलवाँ खेती करते है । कुछ स्थानों पर बैंगन, अरबी, मिर्च, भिंडी आदि सब्जियाँ उगायी जाती हैं ।

तमिलनाडु में नदियों के किनारे वाले क्षेत्रों में केले को सुपारी तथा नारियल के साथ उगाते है । केला, कॉफी, कोको आदि के साथ छायादार पौधे के रूप में भी उगाया जाता है ।


केले को खेती में निराई - गुड़ाई की आवश्यकता

में प्रारम्भिक अवस्था में खरपतवार नियन्त्रण बहुत आवश्यक है । इसके लिये समय - समय पर निराई - गुड़ाई करते रहना चाहिए । जब पौधे बड़े होकर भूमि को ढक लेते हैं तो कम खरपतवार उगते है । केले की जड़ उथली होती है अत: गहरी गुड़ाई नहीं करनी चाहिए । रासायनिकों द्वारा भी खरपतवार नियन्त्रण किया जा सकता है ।


केले की फसल में लगने वाले कीट एवं रोग

केले की फसल (kele ki fasal) में कई प्रकार के कीट एवं रोग लगते है जिनका नियंत्रण करना अति आवश्यक होता है वरना पैदावार में गिरावट देखने को मिलेगी ।

केले की फसल में लगने वाले कीट एवं उनका नियंत्रण

1. तना छदक -

यह कीट ग्रेब अवस्था में अधिक हानिकारक होता है । यह केले के तना में छिद्र करके उसे अन्दर से खाता है । पत्तियाँ पीली पट जाती हैं तथा धीरे - धीरे पूरा पौधा सूख जाता है ।

रोकथाम के लिये - प्रभावित पौधे को नष्ट कर देना चाहिए तथा रोपण के लिये स्वस्थ कीट रहित अन्तः भूस्तारी प्रयोग में लाने चाहिए । प्रभावित पौधा भूस्तारा प्रयोग में लाने चाहिए । प्रभावित पौधों में 30 - 50 ग्राम एल्ड्रिन धूल डालनी चाहिए ।

2. माहू (एफिड) -

प्रारम्भ में कीट पौधे की जड़ के पास पाया जाता है, जो बाद में पत्तियों पर पहुँच जाता है तथा पत्तियों का रस चसकर हानि पहुँचाता है । यह कीट विषाणु रोग फैलाने में सहायक होता है ।

इसकी रोकथाम के लिए - रोगोर मेलाथियॉन या मेटासिसटॉक्स का छिड़काव करना चाहिए ।

3. निमेटोड़ -

यह केले की जड़ों पर आक्रमण करता है । पौधों की वृद्धि रूक जाती है तथा पत्तियों का रंग पीला पड़ जाता है ।

रोकथाम के लिये - गर्मियों में खेत की जुताई विशेष रूप से करनी चाहिए । प्रभावित खेत में कुछ वर्ष केला या निमेटोड से प्रभावित होने वाली फसल नहीं लेनी चाहिए । निमेटोड़ नाशक रसायनों तथा स्वस्थ प्रकन्दों का प्रयोग करना चाहिए ।


केले की फसल में लगने वाले रोग एवं उनका नियंत्रण

1. पनामा रोग -

इसे बनाना विल्ट भी कहते है । यह पयूजेरियम आक्सीपोरम कवक के द्वारा होता है । यह भूमि से फैलने वाला रोग है और कवक सर्वप्रथम पौधे की जड़ों में प्रवेश करते है । पत्तियाँ पीली होकर तने की ओर झुक जाती हैं । कमजोर भूमि लगातार केला ठगाने से यह रोग अधिक होता है । भूमि का अधिक तापक्रम तथा निकृष्ट जल निकास रोग को बढ़ावा देते हैं ।

रोग की रोकथाम के लिये - प्रभावित पौधों को उखाड़कर जला देना चाहिए । नये रोपण के लिये स्वस्थअन्त: भूस्तारी का प्रयोग करना चाहिए । प्रभावित भूमि में केले की कृषि 3 - 4 वर्ष तक नहीं करनी चाहिए तथा रोग प्रतिरोधी जातियाँ उगानी चाहिए ।

2. बन्ची टॉप -

यह एक विषाणु रोग है जो भारत में सभी स्थानों पर पाया जाता है । यह माह द्वारा फैलता है । प्रभावित पौधों की पत्तियाँ छोटी व संकरी हो जाती हैं तथा किनारे ऊपर की ओर मुड़ जाते हैं । पत्तियों का डंठल छोटा हो जाता है तथा पौधे का ऊपरी भाग गुच्छे का रूप धारण कर लेता है ।

रोकथाम के लिए - प्रभावित पौधों को नष्ट कर देना चाहिए तथा नये रोपण के लिये स्वस्थ अन्त: भूस्तारी प्रयोग में लाने चाहिए । माहू की रोकथाम करनी चाहिए ।

3. पर्ण चित्ती -

यह मायकोस्फेरिल म्यूजीकोला कवक के द्वारा होने वाला रोग है । प्रभावित पौधों की पत्तियों पर पीले धब्बे पड़ जाते हैं जो बाद में पीली धारियों में बदल जाते हैं ।

रोग की रोकथाम के लिये - प्रभावित पत्तियों को तोड़कर जला देना चाहिए तथा रोगरोधी जातियाँ उगानी चाहिए । जल निकास तथा बाग की स्वच्छता भी आवश्यक है । बोडों मिश्रण अथवा डायथेन एम - 45 (0 - 25 प्रतिशत) का छिड़काव करना चाहिए ।


केले की फसल में मिट्टी चढाना

केले में वर्षा ऋतु में मिट्टी चढ़ाना लाभप्रद रहता है । इससे पौधे के तने के साथ पानी नहीं रुकता है तथा पौधे व सकर्स वर्षा एवं तेज हवा में गिरने से बच जाते हैं ।


अवांछित अन्तः भस्तारी निकालना

मातृ पौधों से उसके जीवन काल में बहत से सकर्स निकलते रहते हैं । यदि इन सभी को उगने दिया जाये तो मातृ पौधे की वृद्धि रुक जाती है । प्रति पौधा कितने सकर्स रखे जायें यह जाति, उर्वरता तथा वातावरण आदि पर निर्भर करता है ।

दक्षिण भारत में जब तक पौधे पर फूल नहीं आता कोई सकर नहीं निकलने देते । फल आते समय प्रथम तथा दूसरा सकर फल पकते समय उगने देते है, जिससे सदैव फल प्राप्त होने रहते है ।


केले के पौधों को सहारा देना

फलों का गुच्छा आने के बाद, पौधे का ऊपरी भाग भारी हो जाता है और पौधे गिरने का डर रहता है । इसके लिये लकड़ी की बल्ली या दो बांसों से कैंची बनाकर पौधों को सहारा देते है, इस क्रिया को प्रोपिंग भी कहते हैं ।


केले के पौधे की सूखी पत्तियों तथा अन्य अवांछित भागों को काटना

सूखी, रोग - ग्रस्त व सड़ी गली पत्तियों को काट देना चाहिए । आभासी तने को भी फलों का गुच्छा कटने के बाद काट देना चाहिए । फलों के गुच्छे के अग्र भाग काट कर अलग कर देने से फलों की बढ़वार अच्छी होती है क्योकि यह भाग बिना फल बनाये बढ़ता रहता है ।


केले के फलों के गुच्छे को ढकना

फलों को तेज धूप, गर्म हवा तथा धूल से बचाने के लिये गुच्छों को पत्तियों से ढककर बांध देते हैं ।


केले की फसल कितने दिन में तैयार हो जाती है?

केले की नाटी जातियों से रोपण के 11 से 14 माह, लम्बी जातियों से 15 - 16 माह पश्चात् फल प्राप्त हो जाते है ।


केले की फसल की कटाई कब की जाती है?

जब फल अपनी वद्धि पर्ण कर लेते हैं तो फलों की कोणीय धारियाँ समाप्त हो जाती है तथा फल गोल हो जाते है । केलों के गुच्छों (गेठ) की इसी अवस्था में डंठल सहित तेज चाकू से कटाई कर ली जाती है ।


केले की फसल की कटाई किस महीने में की जाती है?

भारत में फल कटाई का मुख्य समय सितम्बर से अप्रैल तक होता है ।


केले की फसल से प्राप्त उपज

केले की उपज जाति, पौधों का अन्तर, जलवायु, भूमि तथा देख - रेख पर निर्भर करती है । केले की उपज 225 - 500 कुन्तल प्रति हैक्टेयर प्राप्त हो जाती है ।


केले की फसल का भंडारण एवं विपणन

केला 15° से. तापमान तथा 85 - 90% आर्द्रता में तीन सप्ताह तक संग्रह किया जा सकता है । दक्षिण भारत से अधिकतर केला उत्तर भारत की मंडियों में भेजा जाता है । गुच्छे काटने के बाद सूखे पत्तो के बीच लगाकर रेल के बैगनों या ट्रकों द्वारा भेजा जाता है । उत्तर भारत तक पहुँचते - पहुँचते गुच्छों का रंग पीला पड़ने लगता है ।


केले को कृमिक ढंग पकाना

फल पकाने के लिये किसी कमरे में पुराल या पत्तियाँ लगाकर कमरे को 3/4 भाग तक गुच्छों से भर दिया जाता है । कमरे में हवा का संचार नहीं होना चाहिए । फल पत्तियों से ढककर, कमरे के कोने से लकड़ी, कंडे आदि जलाकर 30 - 40 घंटे तक धुआँ करते है । फल सूखी पत्तियों इत्यादि में दबाकर भी पकाये जा सकते हैं ।

फल पकाने के लिये 20° से० तापक्रम उपयुक्त रहता है । फल पकने के पश्चात् उनको खुले कमरों में रखना चाहिए । इथ्रल तथा CaC, आदि रासायनिक पदार्थ भी केला पकाने के लिये प्रयोग किये जाते है । इनसे एसीटिलीन तथा इथाइलीन गैस निकलती है, जो केले के फलों को शीघ्रता से पका देती है ।

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