आम की खेती (aam ki kheti) कैसे की जाती है, पूरी जानकारी | Farming Study

  • आम का वानस्पतिक नाम (Botanical Name) - मेंन्जीफेरा इण्डिका (Mangifera indica L.)
  • आम का कुल (Family) - एनाकार्डिएसी  (Anacardiaceae)
  • गेहूँ में गुणसूत्र संख्या - 2n=40

आम भारत का प्राचीनतम एवं महत्वपूर्ण फल है, भारत में आम की खेती (aam ki kheti) अनुमानत: 4000 से 6000 वर्ष पूर्व से हो रही है । आम भारत की संस्कृति और धर्म का भी यह अभिन्न अंग रहा है । 

आम संस्कृत के आम्र शब्द का तद्भव रूप है । विश्व में जिस प्रकार सेब, शीतोष्ण फलों में सर्वोत्तम माना जाता है, उसी प्रकार अपने विशिष्ट गुणों के कारण उष्ण फलों में आम का प्रथम स्थान है । भारत का यह राष्ट्रीय फल है एवं फलों का राजा कहलाता है ।

 

भारत में आम की खेती का इतिहास

शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ के अनुसार, वैदिक काल में आम की खेती (aam ki kheti) को अत्यन्त ख्याति प्राप्त थी । संस्कृत के अन्य प्राचीन ग्रन्थों में समाज के आर्थिक और सामाजिक जीवन में आम के वृक्षों के विभिन्न भागों, जैसे - पत्ती, फूल व फल आदि के उपयोग का विस्तृत वर्णन मिलता है । 

327ई० पूर्व में सिकन्दर महान ने भारत, आक्रमण के समय सिन्धु घाटी में आम की खेती (aam ki kheti) का वर्णन किया है । चीनी यात्री फाह्यान (405 - 411 ई०) ने अपने ग्रन्थ में एक आम्रकुंज का उल्लेख किया है, जिसे 'आम्रधारिका' नामक शिष्या ने भगवान बुद्ध को उपासना हेतु प्रदान किया था । बौद्ध स्तूपों में भी आम को चित्रित किया गया है ।

ह्वेनसांग (629 - 645 ई०) नाम के चीनी यात्री ने विश्व के अनेक देशों को अपने साहित्य के द्वारा आम से परिचित कराया । इब्नहोकूल (902 - 1508 ई०), इब्नबतूता (1325 - 1349 ई०) तथा ल्यूडो विसि डे वथर्मा (1504 - 1508 ई०) आदि विदेशी यात्रियों ने अपने - अपने ग्रन्थों में आम के गुणों का वर्णन किया है । सम्राट अकबर (1556 - 1605 ई०) ने आम को अत्यन्त महत्व दिया । उन्होंने आम के अनेक बाग लगवाये , जिसमें बिहार में दरभंगा के पास 'लक्खा बाग' (एक लाख पौधे वाला) विशेष उल्लेखनीय है । मुगल एवं ब्रिटिश काल में आम का प्रसार विश्वभर में व्यापक रूप से हुआ । भारत में उन्नीसवीं शताब्दी तक आम की अच्छी किस्मों का संकलन करना केवल राजा महाराजाओं का शौक होता था ।


आम के उपयोग एवं आर्थिक महत्व

आम भारत का प्राचीन फल होने के कारण, धार्मिक व सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जाता है । इसकी पत्तियाँ व लकड़ी विशिष्ट अवसरों पर प्रयोग में लायी जाती है । इसकी पत्तियाँ, छाल, गोंद, फूल व फल आदि से अनेक प्रकार की दवाइयाँ व अन्य पदार्थ जैसे - टेनिन आदि बनाये जाते हैं । इसकी लकड़ी फर्नीचर, पैकिंग के बक्से आदि बनाने में उपयोग होती है । 
आम के फल खाने के अतिरिक्त (बनने के कुछ बाद पकने तक) विभिन्न पदार्थ बनाने के काम में आते है ।

जैसे - आमचूर, चटनी, अचार, सब्जी, आम पापड़, स्क्वैश, आम का आटा, जैम, मुरब्बा व डिब्बाबन्दी आदि के रूप में किया जाता है एवं पके हुए फल विटामिन '' तथा 'सी' के उत्तम स्रोत है।


आम का उत्पत्ति स्थान एवं वितरण

आम का उद्भव उत्तरी - पूर्वी भारत और बर्मा के बीच हुआ । भारतीय उपमहाद्वीप के अतिरिक्त वर्तमान में आम की खेती (aam ki kheti) दुनिया के अनेक देशों के उष्ण एवं उपोष्ण क्षेत्रों में, जहाँ यह सोलहवीं शताब्दी से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी तक मुसलमान, स्पेनी तथा पुर्तगाली यात्रियों के द्वारा ले जाया गया, हो रही है । 

भारत के अतिरिक्त आम पाकिस्तान, बांग्लादेश, बर्मा, श्रीलंका,  थाईलैंड, वियतनाम, मलेशिया, फिलीपीन्स, इन्डोनेशिया, फिजी, आस्ट्रेलिया (क्वीन्सलैंड), मिश्र, इजरायल, सूडान, सोमालिया, केन्या, युगांडा, तंजानिया, दक्षिणी अफ्रीका, नाइजीरिया, जैरे, मेडागास्कर, मारीशस, संयुक्त राज्य अमेरिका (फ्लोरिडा, हवाई), मैक्सिको, ब्राजील तथा वेस्टइंडीज में उगाया जा रहा है ।


भारत में आम का उत्पादन

भारत में आम का क्षेत्रफल 1077600 हैक्टेयर है, जो कि भारत के सम्पूर्ण फलों के क्षेत्रफल का लगभग 42 - 0 प्रतिशत है । विश्व के कुल आम उत्पादन का 70 प्रतिशत भारत में होता है । 

भारत में आम उगाने वाले राज्यों में उत्तर प्रदेश (259800 है०), बिहार (146200 है०), आन्ध्र प्रदेश (207600 है०), उड़ीसा (53200 है०), केरल (75500 है०), पश्चिम बंगाल (55100 है०), तमिलनाडू (55800 है०), कर्नाटक (80800 है०), पंजाब (12200 है०), मध्य प्रदेश (20700 है०), गुजरात (3200 है०) तथा महाराष्ट्र (49900 है०) प्रमुख हैै । - (शर्मा एवं सिंह, 1993) ।

ये भी पढ़ें :-


आम की खेती के लिए उचित जलवायु

भारत में आम शीतोष्ण तथा शुष्क क्षेत्रों के अतिरिक्त लगभग सभी क्षेत्रों में उगाया जाता है । यह उष्ण जलवायु का फल है, परन्तु उपोष्ण जलवायु में भी सफलतापूर्वक पैदा किया जाता है । 
समुद्र तल से 1400 मी० ऊँचाई तक जहाँ पर फूल आने के समय अधिक आर्द्रता, वर्षा व पाला न हो, तो‌‌ सफलतापूर्वक आम की खेती ‌(aam ki kheti) कि जा सकती है, समुुद्र तल से ‌600 मी० से अधिक ऊँचाई पर आम की वृद्धि व फलत पर बुरा प्रभाव पड़ता है । 

इसके लिये 24 - 27° से० अनुकूल तापक्रम है, परन्तु इसकी खेती 448° से. तापमान वाले क्षेत्रों में भी सफलतापूर्वक की जाती है । निम्न तापक्रम तथा पाला युवा पौधों के लिये अति हानिकारक है । 
फल विकास तथा पकने के समय उच्च तापक्रम का अच्छा प्रभाव होता है । आम आई व शुष्क दोनों प्रकार की जलवायु में पनपता है परन्तु जिन क्षेत्रों में जून से सितम्बर तक अच्छी वर्षा होती है तथा शेष माह शुष्क रहते है, पुष्पन तथा फलन के लिये अच्छे होते हैं ।
ऐसे स्थानों पर जहाँ की जलवायु वर्ष में आठ माह से अधिकतर रहती हो, आम की उपज व वृद्धि अच्छी नहीं होती है, जैसे - केरल, प० बंगाल तथा आसाम इसके लिये 125 - 250 से० मी० वर्षा पर्याप्त होती है । वर्षा की मात्रा कम होने पर सिंचाई के द्वारा कमी को पूरा किया जा सकता है । 

फूल आने के समय (नवम्बर से फरवरी) अधिक आर्द्रता होने तथा बादल छाये रहने या धुंध होने से फल कम बन पाते हैं एवं कीट - व्याधियों का प्रकोप अधिक होता है । फूल आने के समय आकाश साफ होने तथा वर्षा न होने से फल अधिक संख्या में बनते हैं एवं अधिक उपज प्राप्त होती है । तेज गर्म हवायें भी आम के लिये हानिकारक होती हैं । ऐसे स्थानों पर बाग के किनारे पर उत्तर तथा पश्चिम की ओर वायुवृत्ति लगानी चाहिए ।


भारत में आम की उन्नतशील खेती कैसे करें, पूरी जानकारी | aam ki kheti kaise kare

आम की खेती (aam ki kheti) कैसे की जाती है, पूरी जानकारी, aam ki kheti kaise kare, भारत में आम की उन्नतशील खेती, Fruit Farming in hindi, Farming Study,
आम की खेती (aam ki kheti) कैसे की जाती है, पूरी जानकारी | Farming Study

आम की खेती के लिए उपयुक्त भूमि/मृदा

आम कंकरीली, पथरीलीी, उथली, अधिक क्षारीय व जलक्रान्त मिट्टी को छोड़कर प्रायः सभी प्रकार की मिट्टी में उगाया जा सकता है, परन्तु इसके लिये बलुई दोमट मिट्टी अधिक उपयुक्त मानी गयी है । अधिक भारी मिट्टी इसकी खेती के लिये अच्छी नहीं होती है । आम की जड़ें अधिक गहराई तक बढ़ती है, इसीलिये इसे 2 मी० गहरी मिट्टी की आवश्यकता होती है । 

यद्यपि आम के वृक्ष पहाड़ी क्षेत्रों में एक मीटर गहरी मिट्टी में भी उगाये जाते हैं । दक्षिण भारत की लाल तथा पश्चिमी भारत की मध्यम काली मिट्टी भी आम की खेती (aam ki kheti) के लिये उत्तम है । आम की खेती के लिये 5.5-7.5 पी० एच० मान वाली मिट्टी जिनका जल स्तर 2-2.5 मी० से अधिक नीचा रहे, अच्छी होती है । अधिक क्षारीय भूमि में आम की खेती (aam ki kheti) नहीं की जा सकती ।


आम की उन्नत जातियां

भारत में आम की एक हजार से अधिक जातियाँ पायी जाती है, लेकिन व्यापारिक स्तर पर लगभग तीस जातियाँ उगाई जा रही हैं । 

आम की जातियों का नामकरण - 

भारत में आम की जातियों का नामकरण किसी विशेष आधार पर नहीं किया गया है । कुछ जातियाँ विभिन्न स्थानों पर अलग - अलग नामों से पुकारी जाती हैं जबकि एक ही नाम अलग - अलग जातियों को विभिन्न स्थानों पर दिया गया है ।

आम की जातियों का नामकरण विशेष रूप से स्थान, नाम, बनावट, आकार, रंग व स्वाद आदि के आधार पर किया गया है -

  • विशेष स्थान के आधार पर - बनारसी लंगड़ा, बम्बई, दशहरी, सिंगापुरी, रटौल ।
  • व्यक्तियों के नाम पर - निसार पसंद, आसफ पसंद, जहाँगीर ।
  • उपनाम या उपाधि के आधार पर - राजावाला, कलक्टर, वायसराय ।
  • आकार के अनुसार - पंसेरी, हाथीझूल ।बनावट के आधार पर - लड्डू, तोतापरी, गोला ।
  • भावुक भावनाओं के आधार पर - परी, दिलपसंद, हुसनारा ।
  • रंग के आधार पर - स्वर्ण रेखा, काला, सिंदूरी, जाफरान ।
  • स्वाद के आधार पर - मिठवा गाजीपुर, मिश्री, रसगोला ।
  • सुगंध के आधार पर - गुलाब जामुन, गुलाबखास, अनन्नास ।
  • मूल्यवान पत्थरों पर - नीलम, डायमंड ।
  • फलत के आधार पर - बारहमासी, दो फसली ।
  • पकने के समयानुसार - बैसाखी, कार्तिकी, भदैया ।

आम की जातियों का वर्गीकरण

आम की जातियों का वर्गीकरण निम्न प्रकार से किया जा सकता है -

1. प्रवर्धन के अनुसार -

  • बीजू - बीज के द्वारा प्रवर्धित
  • कलमी – वानस्पतिक विधियों द्वारा प्रवर्धित ।

2. बीज में भ्रूण (एम्ब्रिओ) की संख्या के अनसुार -

  • एकल भ्रूण (मोनी एम्ब्रीओनिक) - जिनके बीजों में केवल एक ही भ्रूण पाया जाता है, जैसे — दशहरी, लंगड़ा, चौंसा आदि ।
  • बहुभ्रूणीय (पौली एम्बीओनिक) - जिन जातियों के बीज में एक से अधिक भ्रूण पाये जाते हैंं, जैसे- बापाकाई, बेलारी, चन्द्रकिरण, गोवा, औलूर आदि ।

3. उपयोग किये जाने के अनुसार -

  • काटकर खाई जाने वाली जातियाँ — इन जातियों के फलों का गूदा कड़ा होता है और ये पकने के पश्चात् काट कर खाई जाती है, जैसे - लंगड़ा, दशहरी, नीलम, चौंसा, अलफैन्जो, मलिका, आम्रपाली आदि ।
  • चूसकर खाई जाने वाली जातियाँ - इन जातियों के फल रेशेयुक्त व रसीले होते हैं, जैसे — मिठवा गाजीपुर, मिठवा सुन्दरशाह, शरबती, बिगरोन, लखनऊ सफेदा, रसपुनिया, चिलारसम, पैडारसम व करंजियो आदि ।

4. पकने के समयानुसार — 

पकने के समय के अनुसार आम की जातियों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है -

  • अगेती जातियाँ ( 15 जून से 15 जुलाई ) - बम्बई हरा, बम्बई पीला, गोपाल भोग, जाफरान, गुलाबखास, हिम सागर, केसर, स्वर्ण रेखा, अलफैजो, रटौला आदि ।
  • मध्यम समय पर पकने वाली (15 जुलाई से 15 अगस्त) - लंगड़ा, दशहरी, कलकत्ता, आमिन, कृष्णभोग, फजरी, जाफरानी, समर बहिस्त, लखनऊ सफेदा, रसपुनिया, अजीज पंसद व मिठवा सुन्दरशाह आदि । 
  • पछेती जातियाँ (15 अगस्त के पश्चात्) - चौसा, तैमुरिया, मोतिया, रामकेला, मनपसंद, कंचन, बेनिशान, नीलम व अनन्नास आदि ।

5. उगाये जाने वाले क्षेत्रों के अनुसार - 

विभिन्न क्षेत्रों में उगायी जाने वाली व्यापारिक जातियाँ निम्नलिखित है -

  • उत्तरी क्षेत्र - दशहरी, लंगड़ा, चौसा, बम्बई हरा, मलिका व आम्रपाली ।
  • पूर्वी क्षेत्र - हिमसागर, फजरी, लंगड़ा, जरदालू, कृष्ण भोग व गुलाबखास ।
  • पश्चिमी क्षेत्र - अलफैजो, पैरी, केसर, राजापुरी व जमादार ।
  • दक्षिणी क्षेत्र – बंगलौरा, नीलम, स्वर्णरखा, पैरी, मलगोवा व अलफैजो ।


आम की प्रमुख व्यापारिक जातियां

आम की प्रमुख व्यापारिक जातियों का वर्णन आम की कुछ प्रमुख जातियों का वर्णन निम्नलिखित है -

  • दशहरी - यह उत्तरी भारत की सर्वश्रेष्ठ, मध्यम समय में पकने वाली जाति है । फल परिमाण में मध्यम (5 -8 प्रति कि०), लम्बाकार व पकने पर हरापन लिये पीले होते है । गुठली पतली व गूदा रेशारहित, बहुत मीठा तथा सुवासयुक्त होता है । पकने के बाद फल दस दिन तक खाने योग्य रखा जा सकता है । यह डिब्बा बंदी के लिये अच्छी जाति है । यह अधिक उपज देने और अपेक्षाकृत नियमित फलत देने वाली जाति है ।
  • लंगड़ा - यह उत्तर प्रदेश तथा बिहार की लोकप्रिय जाति है और मध्यम समय में पककर तैयार होती है । फल बड़े आकार के हरे रंग के होते हैं एवं गूदा हल्का - पीला, रसदार व रेशाहीन होता है । इस जाति में विटामिन 'सी' की मात्रा सर्वाधिक होती है । फलों की भंडारण क्षमता अच्छी नहीं होती है । प्रारम्भ में उपज कम लेकिन प्रौढ़ आय (15 वर्ष) में अधिक उपज देने वाली जाति है । पौधे फैलने वाले होते है और इस जाति से अनियमित फलत होती है ।
  • चौसा - इसके फल वृक्ष बड़े आकार के तथा यह देर से पकने वाली जाति है । पौधे काफी आयु (15-20 वर्ष) के पश्चात् अधिक उपज देते हैं । फल बड़े, लम्बाकार, गहरे पीले रंग वाले एवं इसका गूदा अत्यधिक मीठा होता है । इस जाति में अनियमित फलन की समस्या है ।
  • बम्बई हरा - यह उत्तरी भारत की अगेती जाति है । फल अंडाकार, परिमाण में मध्यम तथा पकने पर पीलापन लिये हरे होते हैं । गूदा मीठा तथा सुवास युक्त होता है और फलों की भंडारण क्षमता मध्यम होती है । औसत उपज देने तथा अनियमित फलन वाली जाति है ।
  • अलफैंजो - यह महाराष्ट्र की अत्यन्त ही लोकप्रिय जाति है । फल स्वादिष्ट तथा अच्छी भण्डारण क्षमता वाले होते है । फलो का रंग पीला - नारंगी, फल बड़े, आकर्षणयुक्त एवं सुवास अधिक समय तक रहती है । इसके फल खाने के अतिरिक्त डिब्बा बन्दी के लिये बहुत उपयुक्त है । यह जाति मध्यम उपज तथा अनियमित फलत वाली है ।
  • हिमसागर — यह पश्चिमी बंगाल की लोकप्रिय एवं व्यापारिक जाति है, यहाँ यह जून के दूसरे सप्ताह में पक जाते हैं । फल बड़े, अण्डाकार, पीलापन लिये हरे रंग वाले, गूदा बहुत मीठा तथा सुवासयुक्त होता है । अधिक उपज देने वाली तथा अनियमित फलत वाली जाति है ।
  • जरदालू - बिहार के दरभंगा क्षेत्र की लोकप्रिय जाति है ।यह जून के अन्त में पकती है । फल परिमाण में मध्यम, अंडाकार तथा पीले रंग वाले होते हैं । फल का स्वाद मीठा तथा सुवासयुक्त होता है । यह अनियमित फलत वाली जाति है ।
  • गुलाब खास - फल जून में पकते हैं तथा मध्यम आकार के होते है । फल गलाब जैसी सुगंध वाले व मीठे होते हैं । फल पीले रंग वाले तथा निचले सिरे पर तथा बराबर में लाली लिये होते हैं । यह अच्छी उपज देने वाली जाति है ।
  • पैरी - पश्चिमी तथा दक्षिणी भागों के लिये अच्छी जाति है । फल आकर्षक, मध्यम आकार वाले होते हैं और फसल मध्य मई से जून तक पक जाती है । उपज अच्छी फलत अनियमित होती है ।
  • बंगलौरा - दक्षिणी भारत की मध्य समय में पकने वाली व नियमित फलन वाली जाति है । फल परिमाण में बड़े, रंग पीला तथा स्वाद अच्छा होता है । भंडारण क्षमता बहुत अच्छी होती है ।
  • नीलम -  दक्षिण भारत की मध्य समय में पकने वाली व नियमित फलन वाला जाति है । फल मध्यम व गोलाकार होते हैं । फलों का रंग पीला व भंडारण क्षमता होती है।
  • बैंगन पल्ली - यह दक्षिण भारत की लोकप्रिय जाति है । यह स्वाद में अच्छी , फल बड़े व सुनहरे पीले रंग वाले होते हैं । यह बेनिसान नाम से भी जानी जाती है । उपज मध्यम तथा नियमित फलत होती है ।


आम की मुख्य संकर जातियां

आम की मुख्य संकर जातियों का वर्णन निम्नलिखित है -

  • मलिका (नीलम  दशहरी) - भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान, नई दिल्ली से निकाली गयी जाति है । फल आकार में बड़े तथा फलत काफी सीमा तक नियमित होती है । यह दशहरी के पश्चात् पकने वाली जाति है । गूदा अधिक मात्रा में व मीठा होता है । फलों की भंडारण क्षमता अच्छी होती है । यह जाति गुच्छा रोग से प्रभावित होती है ।
  • आम्रपाली (दशहरीर नीलम) - यह जाति भी भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली से निकाली गयी है । इस जाति के पौधे बौने होते हैं तथा प्रति हैक्टेयर 1600 पौधे तक लगाये जा सकते हैं । यह नियमित फलन वाली जाति है । इस जाति के फलों में कैरोटीन अधिक मात्रा में पाया जाता है । फल संसाधन के लिये उपयुक्त होते हैं । इसके फलों की भंडारण क्षमता अच्छी होती है ।
  • रत्ना (नीलम अलफैजो) - यह क्षेत्रीय फल अनुसंधान केन्द्र, बेंगुरला (महाराष्ट्र) में विकसित की गयी है । इसके गुण अपनी पैतृक जातियों से अच्छे होते हैं । इस जाति में 'स्पन्जी ऊतक' की समस्या नहीं पायी जाती । इसके फल आकार में नीलम व अलफँजो से बड़े होते हैं । फल का रंग गहरा पीला तथा गूदा नारंगी रंग का स्वादिष्ट व सुवासयुक्त होता है । यह जल्दी पकने वाली तथा नियमित फलन वाली जाति है ।
  • अर्का अरुण (बैंगन पल्ली‌ X अलफैजो) - यह जाति भारतीय उद्यान अनुसंधान संस्थान, बंगलौर में विकसित की गयी है । इसके पौधे बोने, मध्यम उपज वाले एवं नियमित फलन वाले होते हैं । फल आकार में बड़े व आकर्षक रंग वाले होते हैं । गुदा हल्का पीला रंग का सुवासयुक्त व रेशारहित होता है । गुठली छोटी होती है । पौधे नाटे होने के कारण सामान्य जातियों से संख्या में दुगुने लगाये जा सकते हैं ।
  • अर्का पुनीत (अलफैंजो बैंगन पल्ली) - पौधे मध्यम बढ़वार वाले तथा नियमित फलन वाले होते हैं । फल मध्यम आकार के व गहरे पीले होते हैं । गूदा लाल रंग वाला, सुगंधित व रेशा रहित होता है । यह जाति भी भारतीय उद्यान अनुसंधान संस्थान बंगलौर द्वारा विकसित की गई है ।
  • अर्का अनमोल (अलफैजो  जनार्दन पसंद) - यह जाति भारतीय उद्यान अनुसंधान संस्थान, बंगलौर द्वारा विकसित की गई है । इसके पौधे मध्यम आकार के तथा नियमित फलन वाले होते हैं । फल औसत भार (250 - 300 ग्राम) वाले व पीले रंग के होते हैं । फल रेशा रहित व अच्छी भंडारण क्षमता वाले होते हैं । 

उपरोक्त के अतिरिक्त आम की अन्य संकर जातियाँ निम्नलिखित है - 

  • मंजीरा = (रूमानी X नीलम) 
  • निरंजन नीलपैंजो = (नीलम X अलफैजो) 
  • नीलशान = (नीलम X बेनिशान)
  • नीलेश्वरी = (नीलम X दशहरी) 
  • नीलगोवा = (नीलम X मलगोवा) 
  • नीलूद्दीन = (नीलम X हिमायुद्दीन)
  • स्वर्ण जहाँगीर = (चिन्ना स्वर्ण रेखा X जहाँगीर) 
  • ए० यू० रूमानी = (रूमानी X मलगोवा) 
  • प्रभाशंकर = (बम्बई X कालापड्डी) 
  • अलफजली = (अलफैजो X फजली) 
  • सुन्दर लगंड़ा = (लगंडा X सुन्दर पसंद) तथा 
  • संकर - 117 = (रला X अलफैजो) ।


आम में प्रवर्धन की मुख्य विधियां कोन सी है?

आम का प्रवर्धन मुख्य रूप से दो विधियों के द्वारा किया जाता है -

1. बीज के द्वारा प्रवर्धन -

आम की यह सबसे प्राचीन, सस्ती व सुविधाजनक प्रवर्धन करने की विधि है । वर्तमान समय में उगाई जाने वाली बहुत सी जातियाँ इसी विधि द्वारा प्राप्त हुई है । बहुभ्रूणीय जातियों का प्रवर्धन इसी विधि के द्वारा करना अधिक उपयुक्त होता है, क्योंकि पौधे अपने मातृ पौधे के समान गुणों वाले होते हैं । बीज से प्रवर्धन के लिये आम की ताजी गुठलियाँ जो पूर्ण परिपक्व फलों से प्राप्त की जाती है, प्रयोग में लाई जाती हैं । 

अनुकूल परिस्थितियों में गुठलियों की जीवनक्षमता फल से गुठली निकालने के पश्चात् एक माह तक पायी जाती है । 
गुठलियों को अधिक ताप पर संग्रह करना तथा सुखाना हानिकारक होता है । गुठलियों को 15 से० मी० के अन्तर पर 3 - 4 से० मी० गहरा बो देते हैं । 15 - 20 दिन में बीज जम जाता है । आम से अधिकांशतः मूलवृन्त बीज द्वारा ही तैयार किये जाते हैं ।

2. वानस्पतिक प्रवर्धन -

आम निम्नलिखित वानस्पतिक प्रवर्धन की विधियों द्वारा प्रवर्धित किया जा सकता है -

  • तना कलम 
  • दब्बा (लेयरिंग) 
  • चश्मा चढ़ाना (बडिग) 
  • ग्राफ्टिंग इनाचिंग
  • वीनियर व इपीकोटाइल या स्टोन ग्राफ्टिंग ।


उपरोक्त विधियों में तना कलम, दब्बा तथा चश्मा आम के प्रवर्धन की व्यवसायिक विधियाँ नहीं है । तना कलम एवं दब्बे की विधियों द्वारा आम के क्लोनल मूलवृन्त तैयार किये जा सकते है । इन विधियो में पादप वृद्धि नियन्त्रकों (आई० बी० ए०, एन० ए० ए० व आई० ए० एक आदि) का प्रयोग करने से अधिक सफलता प्राप्त होती है । 

इनाचिंग तथा वीनियर ग्राफ्टिग विधियाँ आम के प्रवर्धन के लिये व्यवसायिक स्तर पर अपनाई जाती हैं । इपीकोटाइल या स्टोन ग्राफ्टिग आम के प्रवर्धन की अपेक्षाकृत नवीन एवं सरल विधि है । अभी इस विधि का प्रयोग व्यापारिक स्तर पर नहीं हो रहा है । प्रयोगात्मक स्तर पर आम में बडिंग (पैच, शील्ड तथा फॉरकर्ट) द्वारा भी प्रवर्धन के प्रयत्न किये गये, परन्तु उत्साहवर्धक परिणाम प्राप्त नहीं हुए ।


रोपण अन्तर (distance of planting)

आम में पौधों का आपसी अन्तर भूमि का उर्वरता, रचना, भूमि की गहराई, पानी की सुविधा, जाति, प्रवर्धन की विधि तथा जलवायु पर निर्भर करता है । आम के पौधों को उचित दूरी पर लगाना चाहिए ताकि सूर्य का प्रल पौधों को उचित रूप में मिल सकें । उत्तरी भारत में बौनी जातियों, जैसे - आम्रपाली को 2.5x12.5 मी० के अन्तर पर तथा अर्का अरुण जाति का रोपण 6x6 मी० के अन्तर पर करते हैं । 

मध्यम बढ़वार वाली जातियों, जैसे - दशहरी, बम्बई हरा आदि के लिये 9 से 10 का आपसी अन्तर पर्याप्त रहता है । 
अधिक बढ़वार वाली जातियों जैसे - लंगड़ा, चौसा आदि के लिये 11 से 12 मी० का आपसी अन्तर उचित रहता है । बीजू पौधों को 15 से 18 मी० की दूरी पर रोपना कर देना चाहिए । समुद्रतटीय क्षेत्रों में पौधों की बढ़वार अधिक होने के कारण अन्तर अधिक रखते हैं । दक्षिण के पठार व कर्नाटक  की चिकनी मिट्टी में पौधों की बढ़वार कम होने के कारण पौधों की दूरी अपेक्षाकृत कम रखी जाती है ।


रोपण के लिए गढ्ढे तैयार करना?

सर्वप्रथम भूमि की तैयारी के लिये जुताई करके भूमि को समतल कर दिया जाता है । पौधों के आपसी अन्तर के अनुसार चिन्ह लगाकर प्लाटिंग बोर्ड की खूटियाँ गाड़कर 1x1x1 मी० आकार के गढ्ढे खोद लिये जाते हैं । गढ्ढे खोदने का कार्य, पौधे लगाने से एक माह पूर्व (मई - जून) में करते है, जिससे कि सूर्य की रोशनी के द्वारा हानिकारक कीट नष्ट हो जायें । 

इन गढ्ढों को पौधे लगाने के 15 - 20 दिन पूर्व, ऊपर की मिट्टी में 30 - 40 कि० सड़ी गोबर की खाद, 2.5 कि० सुपर फास्फेट तथा 150 ग्राम एल्ड्रिन धूल मिलाकर भर दिया जाता है । गढ्ढा भरते समय मिट्टी को अच्छी प्रकार से दबा देते हैं तथा गढ्डे की मिट्टी भूमि के धरातल से 15 - 50 से०मी० ऊँची रखते हैं । 

यदि वर्षा न हो तो सिंचाई कर देते है, जिससे कि गढ्डे की मिट्टी बैठ जाये । यदि मिट्टी अधिक बैठ गई हो तो और मिट्टी डालकर भूमि समतल कर देते हैं । आम के पौधे लगाने के लिये सामान्यतया वर्गाकार या आयताकार विधि को अपनाया जाता है ।


रोपण का सही समय एवं रोपण की विधियां

आम के पौधे रोपने का सर्वोत्तम समय जुलाई - अगस्त (वर्षा ऋतु) है । पौधे लगाने का दूसरा उचित समय फरवरी - मार्च (बंसत ऋतु) है, लेकिन इस समय लगाये गये पौधों को अधिक पानी की, तथा गर्मियों में पौधों को लू से बचाने की आवश्यकता होती है । पौधे किसी बादल वाले दिन या शाम के समय लगाने चाहिये । पौधे को गढ्डे के केन्द्र में लगाना चाहिए । 

पौधों को नर्सरी की अपेक्षा 2.5 से० मी० गहरा लगाना चाहिए, लेकिन सदैव यह ध्यान रखना चाहिए कि मूलवृन्त व सांकुर डाली का मिलन स्थान भूमि से 20 से०मी० ऊँचा रहे । पौधे लगाने के तुरन्त बाद पानी दे देना चाहिए ।


आम की फसल में सिंचाई की आवश्यकता

आम के प्रौढ़ वृक्षों में, जिन स्थानों पर वार्षिक वर्षा 125 - 250 से०मी० होती है तथा वह समय पर होती रहे तो सामान्यत: सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती परन्त यवा वक्षों में पर्ण वर्ष पानी की आवश्यकता होती है, इसलिये पौधे की आय के अनुसार सिंचाई को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है । युवा व अफलत वाले वृक्षों (5 वर्ष की आयु तक) की सिंचाई होती है । प्रौढ़ या फलते हुए वृक्षों की सिंचाई ।

पौधे की पहली अवस्था में सिंचाई का मुख्य उद्देश्य पौधे में अधिक से अधिक वृद्धि असा होता है । पौधे की स्थापना से लेकर छ: माह तक ग्रीष्म ऋतु में प्रति सप्ताह तथा शीत ऋतु में प्रति दो सप्ताह के बाद सिंचाई करते रहना चाहिये । 

इसके पश्चात् वर्षा ऋतु को छोड़कर, यदि वर्षा होती रहे तो, अन्य ऋतुओं में पौधों की आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहना चाहिए। फलदार वृक्षों में फूल आने के 2 - 3 माह पूर्व सिंचाई बंद कर देनी चाहिए । फल बनने के पश्चात् 10 - 15 दिन के अन्तर पर पर फल बनने के पश्चात् 10 - 15 दिन के अन्तर पर पानी देते रहना चाहिए । वर्षा ऋतु में यदि समय से वर्षा होती रहे तो सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती । सिंचाई की मात्रा विशेष रूप से जलवायु तथा भूमि पर निर्भर करती है । बंगाल, बिहार, पश्चिमी घाट व दक्षिण के तटीय क्षेत्रों में आम के बागों में साधारणतया सिंचाई नहीं करते है, क्योंकि अधिक वर्षा होने के कारण भूमि में नमी की मात्रा पर्याप्त बनी रहती है । मटियार मिट्टी में कम तथा बलई मिट्टी में अधिक सिंचाई की आवश्यकता होती है ।


आम की फसल के लिए आवश्यक खाद एवं उर्वरक की मात्रा

आम के पौधों की संतोषजनक वृद्धि व फलत के लिये उचित मात्रा में खाद तथा उर्वरकों का देना आवश्यक है । पौधों की आयु के अनुसार दिये जाने वाले पोषक तत्वों की मात्रा निर्धारित होती है ।

1. युवा व अफलत दशा - 

एक साल की आय के पौधे में 75 ग्राम नाइट्रोजन, 100 ग्राम फास्फोरस तथा 55 ग्राम पोटाश दी जानी चाहिए । नाइट्रोजन की 40 - 80 प्रतिशत मात्रा कार्बनिक खादों के रूप में दी जानी चाहिए । इन मात्राओं में पौधे की आयु को गुणा करके प्रतिवर्ष दिये जाने वाले तत्त्वों की मात्रा निर्धारित की जा सकती है । एक अन्य अनुमान के अनुसार एक वर्ष के पौधे में 10 कि० गोबर की खाद, 2 - 5 कि० हड्डी का चूरा व 1 कि० पोटेशियम सल्फेट का मिश्रण दिया जाना उचित रहता है । इस मात्रा में प्रतिवर्ष 5 कि० गोबर की खाद 0.5 कि० हड्डी का चूरा तथा 0-4 कि० पोटेशियम सल्फेट, दसवें वर्ष तक बढ़ाते रहना चाहिए । 

केन्द्रीय आम अनुसंधान केन्द्र, रहमानखेड़ा पर किये गये अनुसंधान के अनुसार पौधों की अफलत की आयु में 73 ग्राम नाइट्रोजन, 18 ग्राम फास्फोरस तथा 68 ग्राम पोटाश प्रति वर्ष की दर से देना उपयुक्त पाया गया ।

2. फलत वाले पौधे -

गोविन्द बल्लभ पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय पंतनगर में किये गये परीक्षणों के आधार पर दस वर्ष या उससे अधिक आयु के वृक्षों में 100 कि० गोबर की खाद, 1 कि० नाइट्रोजन, 0-75 कि० फास्फोरस तथा 1 कि० पोटाश की मात्रा देना उचित पाया गया । 

एक अन्य अध्ययन के अनुसार फलत वाले पौधों में 2.17 कि० यूरिया 3-12 कि० सिगिंल सपर फास्फेट तथा 1.67 कि० म्यूरेट आफ पोटाश प्रतिवर्ष दी जानी चाहिये । अधिक फलत वाली साल (ऑन ईयर) 500 ग्राम नाइट्रोजन की अतिरिक्त मात्रा फसल समाप्त होने के बाद देनी लाभदायक रहती है । नाइट्रोजन व पोटाशधारी उर्वरकों को पत्तियों पर छिड़काव के रूप में दिया जा सकता है । 

यूरिया के 1-2 प्रतिशत तथा पोटेशियम सल्फेट के 2.5 प्रतिशत सांद्रता वाले घोलों का छिड़काव किया जाता है । पोटेशियम क्लोराइड का उपयोग नहीं करना चाहिये क्योंकि क्लोरीन की मात्रा पत्तियों में अधिक होने से वे सूखना प्रारम्भ हो जाता है । भूमि में यदि आवश्यक गौण तत्वों की कमी है तो उनको भूमि में अथवा छिड़काव द्वारा दिया जाना चाहिये । 


आम की फसल में खाद देने का सही समय क्या होता है?

अफलत वाले युवा पौधों में उर्वरकों की सम्पूर्ण मात्रा को तीन भागों में विभाजित कर वर्ष में तीन बार - फरवरी, अप्रैल और सितम्बर में देना चाहिये । इस प्रकार पौधे पोषक तत्वों का अधिकतम उपयोग कर पाते हैं, क्योंकि युवा पौधों में जड़ अधिक फैली हुई नहीं होती है ताकि वे पूरी मात्रा एक साथ उपयोग कर सकें । 

आम के फलत वाले वृक्षों में नाइट्रोजन की पूरी मात्रा तथा फास्फोरस व पोटाश की आधी - आधी मात्रा फलों के तुड़ाई बाद देनी चाहिये । शेष बचे उर्वरकों को अन्तिम सिंचाई के समय अक्टूबर में देना चाहिये ।


आम की फसल में खाद एवं उर्वरक देने कि विधि

छोटे पौधों में (4-5 वर्ष की आयु तक) उर्वरक पौधे के तने से 20 से० मी० चारों ओर जगह छोड़कर पौधों के थामले में डालकर मिला दिये जाते हैं । बड़े पौधों में उर्वरकों को तने से 1.20 मी० स्थान चारों ओर छोड़कर लगाया जाता है क्योंकि तने से 1 20 मी० से 2.40 मी० तक सक्रिय जड़ स्थित होती है । खाद तथा उर्वरकों को पौधे के चारों ओर 30 से० मी० गहरी नाली खोदकर, उसमें डालकर मिलाने के पश्चात् नाली को  मिट्टी से भर देना चाहिये ।


आम के युवा पौधों की देखभाल कैसे करें?

युवा अवस्था विशेष रूप से 2-3 वर्ष की आयु तक पौधों को पाले से बचाने के लिये पौधों को फूस का चटाई आदि से इस प्रकार ढकना चाहिये कि पूर्व की ओर खुला रहे ताकि पौधों को सूर्य का प्रकाश मिलता रहे । पाला पड़ने वाली रात में सिंचाई करने तथा धुआँ करने से भी पाले का प्रकोप कम रहता है । ग्रीष्म ऋतु में गर्म हवाओं से बचाने के लिये बाग के चारों ओर वायुरोधी लगाने से एवं सिंचाई करके लू के प्रभाव को कम किया जा सकता है ।


जुलाई तथा अन्तरा व आवरण शस्य

पौधे की आरम्भिक अवस्था में अन्तरा तथा आवरण शस्य लेने से आवश्यक जुताई - गुड़ाई हो जाती है । जब पौधे बड़े हो जाते है, तो उनके बीच अन्तरा या आवरण शस्य लेना सम्भव नहीं रहता । 
इस अवस्था में वर्ष में कम से कम दो बार, जून व अक्टूबर में जुताई कर देनी चाहिये । पौधों के थामलों को पूर्ण वर्ष निराई - गुड़ाई करके खरपतवार रहित रखना चाहिये और फल वृक्षों के बीच की खाली भूमि प्याज, टमाटर, मूली, गाजर, फूलगोभी, पत्तागोभी, पालक, मिर्च, भिंडी, लोबिया, मटर व उर्द जैसी उथली जड़ वाली फसलें उगानी चाहिये । प्रारम्भिक अवस्था में अन्तर स्थानों में जल्दी फल देने वाले पलों के पौधे (पूरक या फिलर्स) भी उगाये जाते है, जैसे — पपीता, अनन्नास, स्ट्राबेरी, अमरूद, फालसा व आडू आदि ।


आम के पौधों की कटाई छंटाई (कृन्तन) कब की जाती है?

आम में बहुत कम मात्रा में कृन्तन की आवश्यकता होती है । पौधे की प्रारम्भिक अवस्था में मूलवृन्त से निकली शाखाओं को तुरन्त निकालना चाहिये और पौधे को स्वस्थ रखने के लिये रोगग्रस्त, सूखी, कमजोर व रगड़ खाती हुई शाखाओं को निकालते रहना चाहिये । 

आम में कृन्तन का उचित समय अक्टूबर से दिसम्बर माह है । दक्षिण भारत में बहत पराने वक्ष जो फल देना बन्द कर देते है, काँट - छाँट करने से प्रारम्भ कर देते हैं । परन्तु काँट - छाँट का यह प्रभाव उत्तरी भारत की जातियों पर नहीं पाया गया है ।


आम की फसल में फूल आना व फल बनने की प्रक्रिया

आम के फूल आने का समय स्थान विशेष की जलवायु एवं जाति पर निर्भर करता है । आन्ध्र प्रदेश में फूल नवम्बर - दिसम्बर में आता है । उत्तरी भारत में फूल आने का समय फरवरी - मार्च तथा पश्चिमी भारत में जनवरी - फरवरी है । फूल आने की अवधि 2 - 3 सप्ताह होती है । 

यह अवधि कम तापक्रम पर अधिक तथा अधिक तापक्रम होने से कम हो सकती है । आम में फल बनने के लिये पर - परागण आवश्यक है । यह क्रिया कीटों व विशेष रूप से मविखयों द्वारा होती है । वृक्ष पर फल बनने की मात्रा जाति, फूलने का समय, उभयलिंगी फूलों की संख्या, परपरागण की क्षमता व छोटे फलों के गिरने आदि पर निर्भर करती है ।


आम में परागण एवं फलन की क्रिया

आप में स्वअनिषेचिता भी पायी जाती है । अत: अच्छी फलत: के लिये यह आवश्यक है कि परागण किसी दूसरी जाति के परागकणों से हो । फलोद्यान लगाते समय 10% पौधे ऐसी जातियों के लगाये जाने चाहिए, जो किसी विशेष जाति में परागण के लिए सक्षम हों । 
परागण मुख्यतः कीटों द्वारा होता है, अत: उस समय किसी कीट नाशक रसायन का छिड़काव नहीं करना चाहिए । 

उभयलिंगी से परागण तथा निषेचन के पश्चात् फल बनता है । इनमें से केवल 0.1% या इससे भी कम ही पूर्ण विकसित परिपक्व फल बना पाते है बाकी फूल और छोटे फल के रूप में गिर जाते हैं ।


आम की फसल में फलों की तुड़ाई और उपज

आम में फूल आने के 90-120 दिन बाद, जाति अनुसार फल तुड़ाई योग्य हो जाते है । तुड़ाई के समय का अनुमान फलों के रंग को देखकर या फलों को पानी में डाल कर लगाया जा सकता है । जब फल पानी में डालने पर डूब जाये तो समझना चाहिए कि फल तोड़ने योग्य हो गये हैं । इसके पश्चात् इक्का - दुक्का फल पककर भी गिरने लगते हैं । 

फलों की तुड़ाई में इस बात पर विशेष ध्यान रखा जाये कि फल क्षतिग्रस्त न हों । ग्राफ्टिड पौधे 4 से 5 वर्ष बाद फल देना प्रारम्भ कर देते हैं । छठे वर्ष पौधे से 50-75 फल प्राप्त हो जाते हैं । 
पौधों की आयु बढ़ने के साथ - साथ उपज बढ़ती जाती है । 10 वर्ष पुराने पौधे से 300-500 फल, 16 वर्ष पुराने पौधे से 800-1200 फल और 20-40 वर्ष पुराने पौधे से 1500-3500 (2 से 5 कुन्तल) तक फल प्राप्त हो सकते हैं । उपज फलोद्यान के रख - रखाव और जाति पर निर्भर करती है । यदि देख रेख उचित हो तो 50 वर्ष तक अच्छी उपज मिलती रहती है ।


फलों का संवेष्टन, विपणन एवं संग्रहण

आम के फलों की पैकिंग के लिए सामान्यत: टोकरियाँ व लकड़ी की पेटियाँ प्रयोग में लायी जाती हैं । क्रमवार छॉटकर ही पैकिंग करनी चाहिए । आम के फलो को पकने के पश्चात् अधिक समय तक सामान्य स्थिति में नहीं रखा जा सकता है । अत: पैकिंग के तरन्त बाद विपणन के लिए भग चाहिए । दूरस्थ बाजारों में भेजने के लिए फलों को पकने से कुछ समय पूर्व ही चाहिए । पूर्ण विकसित कड़े फलों को 5-11° से. तापक्रम एवं 85-90 % सापेक्ष आर्दता सप्ताह तक सुरक्षित रखा जा सकता है ।


आम की फसल में लगने वाले प्रमुख कीट एवं रोगों के नियंत्रण के उपाय

आम की फसल में कीट एवं रोग (aam ke keet aur rog) अधिक लगते हैं, जिनका नियंत्रण करना अति आवश्यक होता है अन्यथा पैदावार में गिरावट देखने को मिलती है । आम भारत के महत्वपूर्ण फलों में से एक है जिसका उपयोग सांस्कृतिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण माना जाता है ।

आम की खेती (aam ki kheti) भारत के लगभग सभी राज्यों में की जाती है और उचित  सस्य क्रियाएं अपनाकर अच्छी पैदावार प्राप्त की जाती ।

आम की फसल में लगने वाले प्रमुख कीट -

  • कुटकी या भुनगा ( Mango hoppers )
  • आम का चेपा ( Meely bug )
  • तना बेधक ( Stem borer )
  • प्ररोह छिद्रक ( Shoot borer )
  • पत्तियाँ काटने वाली वीविल ( Leaf cuting weevil )
  • फल की मक्खी ( Fruit Fly )
  • स्टोन वीविल ( Stone weevil )
  • दीमक ( Termites )

आम की फसल में लगने वाले प्रमुख रोग -

  • चूर्णिल आसिता ( Powdery mildew )
  • श्यामव्रण ( Anthracnose )
  • कज्जली फफूंद ( Shooty mould )
  • आम विशुष्क अग्र ( Mango wither tip )

आम में लगने वाले कायिकी रोग -

  • काला सिरा रोग ( Black tip )
  • पत्तियों का झुलसना ( Leaf scorch )
  • मालफोर्मेशन या बच्ची टॉप ( Malformation or Bunchy Top )

मालफोर्मेशन के कारण -

  • कवक ( Fungus )
  • विषाणु ( Virus )
  • एक्रोलोजिकल ( Acarological )
  • कायिकीय ( Physiological )

मालफोर्मेशन के प्रकार -

  • वानस्पतिक मालफोर्मेशन ( Vegetative malformation )
  • पुष्पीय मालफोर्मेशन ( Floral malformation )


आम की फसल में लगने वाले प्रमुख कीट एवं रोगों के नियंत्रण के उपाय

आम में लगने वाले प्रमुख कीट एवं रोगों का नियंत्रण कैसे करते है, आम के प्रमुख कीट एवं रोग, aam ke keet aur rog, aam ki kheti, आम की खेती, आम की फसल
आम की फसल में लगने वाले प्रमुख कीट एवं रोगों के नियंत्रण के उपाय बताएं?


आम की फसल में लगने वाले कीट एवं उनका नियंत्रण

( 1 ) कुटकी या भुनगा ( Mango hoppers ) -

यह आम पर फूल आने के समय लगने वाला बहुत हानिकारक कीट है । ये बहुत छोटे, शफान आकृति वाले (Wedge shaped), भूरे रंग के होते हैं, जो आम की नयी पत्तियों व फूल का रस चूसते हैं । प्रभावित अंग पर इनके द्वारा छोड़े गये स्त्राव से कज्जली फफूंदी (Shooty mould) का आक्रमण होता है । अधिक आर्द्रता व बादल छाये रहने से, इन कीटों का प्रकोप अधिक होता है ।

नियन्त्रण के उपाय - इसके नियन्त्रण के लिए 0-15 % मेलाथियॉन या 0.2% डायजिनान या 0.04% एलड्रिन या 0-15% कार्बोरिल या 0-05% फास्फोमिडान या 0-04% नुवाक्रान का छिड़काव फूल आने व फल बनने के समय करना चाहिए ।


( 2 ) आम का चेपा ( Meely bug ) -

यह कीट उत्तर प्रदेश में आम को अधिक हानि पहुँचाता है । इस कीट की मादा सफेद, कोमल तथा मन्द गति से रेंगने वाली होती है । यह कोमल शाखाओं तथा फूलों के डंठलों पर फरवरी से मई तक चिपका हुआ पाया जाता है और कोमल भागों का रस चूसकर एक लसलसा पदार्थ छोड़ता है जो कि फफूंदी रोगों को प्रोत्साहन देता है । इससे ग्रसित फूल बिना फल बनाये ही गिर जाते हैं ।

नियन्त्रण के उपाय - इसकी मादा मिट्टी में गर्मियों में अंडे देती है । अत: मई - जून में पौधे के तने के पास 2 मीटर अर्द्धव्यास में मिट्टी खोदने से कुछ अन्डे नष्ट हो जाते हैं । नवम्बर - दिसम्बर में तने पर भूमि से 60 से० मी० ऊँचाई पर 20 से० मी० चौड़ाई में छाल की दरारों को चिकनी मिट्टी से भरकर, पौलीथीन की पट्टी बाँधने से कीट ऊपर नहीं चढ़ पाते हैं । अन्डी का तेल व बिरोजा 4:5 के अनुपात में मिलाकर पट्टियों पर लेप करके भी ये तनों पर बाँधी जाती है । इसके निम्फ यदि ऊपर पौधे पर पहुँच गये हों तो नुवाक्रान 0.04%, डायजिनान 0-05% का छिड़काव करना चाहिये । दिसम्बर में फौलीडॉल (2% धूल), 500 ग्राम प्रति पौधा या पैराथियॉन (2% धूल), 250 ग्राम प्रति पौधा, थामले में मिलाना लाभकारी है ।


( 3 ) तना बेधक ( Stem borer ) -

यह कीट अधिकतर उपेक्षित एवं पुराने फलोद्यानों में अधिक लगता है । यह तने में छेद करके टेढी - मेढ़ी सुरंगें बना लेता है, जिससे ग्रसित भाग को पर्याप्त क्षति हो जाती है ।

नियन्त्रण के उपाय - रूई को मिट्टी के तेल या पेट्रोल या फॉर्मेलीन में भिगोकर छेदों में भर कर ऊपर से चिकनी मिट्टी से बन्द कर देना चाहिए । छेदों में तार डालकर घुमाने से भी कीट मारे जा सकते हैं ।


( 4 ) प्ररोह छिद्रक ( Shoot borer ) —

यह सूड़ी आम की नयी प्ररोहों में ऊपर से नीचे को छिद्र बना लेती हैं । जिससे क्षतिग्रस्त भाग मर जाते हैं ।

नियन्त्रण के उपाय - प्रभावित भाग को काटकर जला देना और नयी वृद्धि के समय नुवाक्रॉन 0.04% का छिड़काव करना चाहिए ।


( 5 ) पत्तियाँ काटने वाली वीविल ( Leaf cuting weevil ) —

वर्षा ऋतु के पश्चात् नयी पत्तियों पर इस कीट का आक्रमण अधिक पाया जाता है । यह आधार की ओर से पत्तियों को काटता है ।

नियन्त्रण के उपाय - 0.1% मेलाथियॉन का छिड़काव करके इसे नियंत्रित किया जा सकता है ।


( 6 ) फल की मक्खी ( Fruit Fly ) —

यह मक्खी फल के गूदे के अन्दर फलों के पकते समय अन्डे देती है । कुछ दिनों में अन्डों से सफेद मैगट्स निकलकर गूदा खाना प्रारम्भ कर देते हैं और प्रभावित फल गिर जाते हैं ।

नियन्त्रण के उपाय - फलों को पकने से पूर्व ही वृक्ष से तोड़ लेना और प्रभावित फलों को एकत्र कर नष्ट कर देना चाहिए । प्रौढ़ मक्खियों को मारने के लिए वृक्षों पर जहरीली गोलियाँ लटका देना और 0.02% फास्फॉमिडॉन का छिड़काव करना चाहिए ।


( 7 ) स्टोन वीविल ( Stone weevil ) —

यह आम बनने की प्रारम्भिक अवस्था में आक्रमण करता है । जब फल मटर के आकार के होते हैं तो वीविल फल की सतह पर अन्डे देती है और अन्डों से ग्रब निकलकर गुठली में छेद करके प्रवेश कर जाते हैं । ये अपना पूरा जीवन चक्र यहीं पूरा करते हैं और अपने मल पदार्थ से फल के गूदे को खराब कर देते हैं । इनकी क्षति फल काटने पर ही पता चलती है ।

नियन्त्रण के उपाय - फलोद्यान में सफाई और अगस्त माह में प्रौढ़ कीटों को नष्ट कर देना चाहिए ।


( 8 ) दीमक ( Termites ) -

यह युवा पौधों को ग्रीष्म ऋतु के शुष्क मौसम में अधिक हानि पहुँचाती है पौधे की प्रारम्भिक अवस्था में इसकी जड़ों पर आक्रमण पौधे की मृत्यु का कारण बनता है ।

नियन्त्रण के उपाय - वर्षा प्रारम्भ होने पर 0-2% डी० डी० टी० पौधे के चारों ओर मिट्टी में मिला देनी चाहिए । बी० एच० सी० (5%) या एलड्रिन या हैफ्टाक्लोर को भी पौधों के थामलों में मिलाया जा सकता है ।


आम की फसल में लगने वाली रोग एवं उनका नियंत्रण


( 1 ) चूर्णिल आसिता ( Powdery mildew ) —

यह रोग ऑडियम जाति (Oidium sp.) के कवक द्वारा उत्पन्न होती है और आम का प्रमुख रोग है । इसके प्रकोप से फूलों व छोटे पत्तों पर सफेद चूर्ण सा दिखाई पड़ता है । प्रभावित अंग बाद में गहरे भूरे रंग के हो जाते हैं । फूल व फल झड़ जाते हैं और फसल को बहुत हानि पहुँचती है ।

नियन्त्रण के उपाय - घुलनशील गंधक का 0-2% घोल छिड़कने से नियंत्रित किया जा सकता है । यह छिड़काव 15 दिन के अन्तर से तीन बार, पहली बार फूल आने से पहले, दूसरी बार फूल आते समय और तीसरी बार फूल आने के बाद करना चाहिए । कैराथीन का छिड़काव भी लाभकारी रहता है ।


( 2 ) श्यामव्रण ( Anthracnose ) —

यह रोग कोलेटोट्राइकम जाति (Collectorricum sp.) के कवक द्वारा होता है । यह कवक पौधे की शाखाओं, पत्तियों, फूलों तथा फलों के कोमल भागों पर आक्रमण करता है । अधिक आर्द्रता में यह रोग अधिक फैलता है । पत्तियों पर गहरे भूरे रंग के चकत्ते पड़ जाते हैं । यह रोग मंजरी अंग मारी तथा फल सड़न के रूप में भी प्रकट होता है ।

नियन्त्रण के उपाय - रोगी पौधों पर 0-2% ब्लाइटाक्स या फाइटालॉन या बोडों मिश्रण (3:3:50) का छिड़काव फरवरी से मई के मध्य तक दो - तीन बार करना चाहिए ।


( 3 ) कज्जली फफूंद ( Shooty mould ) -

यह आई स्थानों पर अधिक पाया जाता है । यह भुनगा कीट (hopper) के द्वारा पौधों पर चिपचिपा पदार्थ छोड़ने के बाद आक्रमण करता है । प्रभावित अंगों पर काली फफूंदी विकसित हो जाती है ।

नियन्त्रण के उपाय - इसके नियंत्रण के लिए भुनगे के नियंत्रण के पश्चात् चूने व गन्धक (1:40) का छिड़काव प्रभावशाली रहता है ।


( 4 ) आम विशुष्क अग्र ( Mango wither tip ) —

यह रोग कोलेटोट्राइकम जाति के कवक द्वारा होता है । इसके आक्रमण से शाखायें अन भाग की ओर से सूखना प्रारम्भ कर देती हैं ।

नियन्त्रण के उपाय - प्रभावित शाखाओं को काटकर जला देना और कटे भाग पर बोडों पेस्ट लगा देना चाहिए । रोगग्रस्त पौधों पर जिनेब 0-2% या बोडों मिशण (4:4:50) का छिड़काव करना चाहिए ।


आम में लगने वाले कायिकी रोग


( 1 ) काला सिरा रोग ( Black tip ) -

यह रोग ईंट के भट्टों के समीप अधिक होता है । भट्टे से सल्फर डाइआक्साइड, एसीटिलीन और कार्बन मोनोक्साइड गैसे निकलती हैं, जिससे फल के निचले सिरे पर पहले भृरा व बाद में काला दाग पड़ जाता है है । ऐसे फल पकने से पूर्व ही गिर जाते हैं ।

नियंत्रण के उपाय - इस रोग से बचने के लिए यह आवश्यक कि भट्टे की चिमनी 15-18 मीटर ऊँची हों । बोरेक्स 0.6% या कास्टिक सोडा 0.8% का छिड़काव, अप्रैल - मई में 2-3 बार करना चाहिए ।


( 2 ) पत्तियों का झुलसना ( Leaf scorch ) —

यह रोग पत्तियों में क्लोराइड आयन की अधिकता से होता है । आरम्भ में पत्तियों का अग्र भाग एवं बाद में पूरी पत्ती ईंट के रंग जैसी लाल हो जाती है और ऐसी दिखलायी पड़ती है जैसे झुलस गयी हो । इसके कारण पत्तियों में पोटाश का स्तर नीचा हो जाता है ।

नियंत्रण के उपाय - गिरी हुई पत्तियों को पौधे के पास से उठाकर जला देना और पोटेशियम क्लोराइड उर्वरक का प्रयोग नहीं करना चाहिए । सिंचाई के पानी में क्लोराइड की मात्रा नहीं होनी चाहिए । पोटेशियम क्लोराइड उर्वरक के स्थान पर पोटेशियम सल्फेट का प्रयोग करना चाहिए । इस सम्बन्ध में शोध कार्य जारी है ।


( 3 ) मालफोर्मेशन या बच्ची टॉप ( Malformation or Bunchy Top ) -

उत्तरी भाग में यह आम की एक गम्भीर समस्या है । यद्यपि समस्त भारतवर्ष में, आम की अधिकांश जातियाँ कम अथवा अधिक मात्रा में इस व्याधि से ग्रसित होती हैं, परन्तु उत्तरी - पश्चिमी भारत (उत्तर प्रदेश, दिल्ली एवं पंजाब) में इसका प्रकोप अधिक है । भारत में यह रोग बहुत पहिले से पाया जाता है परन्तु सर्वप्रथम सन् 1891 में यह दरभंगा (बिहार) में पहचाना गया ।


उत्तरी भारत की व्यवसायिक जातियाँ - 

बम्बई हरी व आम्रपाली मालफोर्मेशन से अधिक ग्रसित होती हैं, दशहरी उनसे कम एवं चौसा तथा लंगड़ा बहुत कम ग्रसित होता हैं । पुरानों की अपेक्षा युवा पौधे इस रोग से अधिक प्रभावित होते हैं ।


मालफोर्मेशन के कारण ( Causes of malformation )

इस समस्या के कारणों की अभी तक सही जानकारी नहीं हो पाई, यद्यपि शोधकार्य जारी है । कारणों के संबंध में वैज्ञानिकों द्वारा अनेक परिकल्पनायें की गई हैं एवं उनके विभिन्न मत हैं ।


( 1 ) कवक ( Fungus ) -

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली के पादप रोग वैज्ञानिकों के अनुसार यह रोग फ्यूजेरियम मोनीलीफोर्म (Fusarium moniliform) नामक कवक के द्वारा होता है, परन्तु पन्तनगर कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक इसका कारण फ्यूजेरियम ऑक्सीस्पोरम (F. oxysporum) कवक को मानते हैं । ये वैज्ञानिक खुले क्षेत्र में उक्त कवकों द्वारा पौधों में इस रोग को उत्पन्न करने में असमर्थ रहे ।


( 2 ) विषाणु ( Virus ) —

यह व्याधि उन क्षेत्रों में अधिक पाई गई, जहाँ आम के भुनगों (Mango hoppers) का प्रकोप अधिक था । अत : कुछ वैज्ञानिकों ने यह माना कि यह रोग विषाणु के द्वारा होता है, जिससे हॉपर्स एक पौधे से दूसरे पौधे में फैलाते हैं । परन्तु इसके पुष्टीकरण हेतु स्पष्ट प्रमाण नहीं मिले ।


( 3 ) एक्रोलोजिकल ( Acarological ) -

समय - समय पर विभिन्न माइट्स (Mites) जैसे- ऐकेरिया मेन्जीफेरा, चिलेटोगिनास आरनेटस व टाइफेलोड्रोमस डेनेनस आदि के द्वारा इस रोग को फैलने के सम्बन्ध में अनुसंधान किये गये । सहारनपुर में किये गये शोधकार्य के अनुसार माइट्स की संख्या व मालफोर्मेशन के प्रकोप के बीच कोई आपसी सम्बन्ध नहीं पाया गया ।


( 4 ) कायिकीय ( Physiological ) -

सर्वप्रथम अधिक मृदा नमी को इस व्याधि का कारण माना गया । अध्ययनों के परिणामस्वरूप, पादप पोषण व मालफोर्मेशन के प्रकोप के मध्य भी कोई आपसी सम्बन्ध नहीं पाया गया ।


भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान पर किये गये शोधकार्य के अनुसार सम्भवतयः मालफोर्मेशन पौधे के अन्दर उपस्थित वृद्धि नियन्त्रक पदार्थों के स्तर के द्वारा नियंत्रित होती है । एक अन्य अध्यया के अनुसार इस रोग से प्रभावित पुष्पक्रम की अपेक्षा स्वस्थ पुष्पक्रम में आर० एन० ए० व डी० एन० ए० का स्तर अधिक पाया गया । इसी संस्थान पर विगत वर्षों में किये गये कार्यों के परिणाम स्वरूप पाया गया कि एन० ए० ए० का छिड़काव व व्याधि से प्रभावित भाग को काटने से, पौधों से लाभदायक उपज प्राप्त की जा सकती है ।


नियन्त्रण के उपाय ( Control measures ) -

यद्यपि समय - समय पर इस व्याधि के नियन्त्रण हेतु अनेक उपाय सुझाये गये हैं, परन्तु अभी तक इस व्याधि को नियन्त्रित करने से पूर्ण सफलता प्राप्त नहीं हुई है ।


यदि निम्नलिखित उपाय किये जायें तो इस समस्या के निराकरण में काफी सफलता प्राप्त की जा सकती है -

  • अक्टूबर माह के प्रथम सप्ताह में एन० ए० ए० (200 पी० पी० एम०) का छिड़काव करें ।
  • समस्त प्रभावित भागों को लगभग 15 से० मी० नीचे से काटकर नष्ट कर देना चाहिये तथा केप्टान 0.2% एवं मेलाथिऑन 0.1% का छिड़काव करना चाहिए । दस दिन पश्चात् यही छिड़काव दुबारा करना चाहिए ।
  • जुताई - गुड़ाई, सिंचाई, पादप सुरक्षा व कृन्तन आदि क्रियायें सही समय पर एवं उचित मात्रा में करने चाहिये ।
  • खाद एवं उर्वरकों को उचित समय पर एवं निर्धारित मात्रा में देना चाहिये ।
  • पादप प्रवर्धन हेतु स्वस्थ मूलवृन्त व सांकुर डाली का प्रयोग करना चाहिये ।
  • जनवरी माह में, फल कलिका बनने से पूर्व एन० ए० ए० (200 पी० पी० एम०) का छिड़काव करने से पुष्पीय मालफोर्मेशन का प्रकोप कम होता है तथा अधिक उपज प्राप्त होती है ।


मालफोर्मेशन के प्रकार ( Type of malformation )


पौधों के प्रभावित अंगों के अनुसार मालफोर्मेशन दो प्रकार की होती है -

( 1 ) वानस्पतिक मालफोर्मेशन ( Vegetative malformation ) —

यह छोटे पौधों में अधिक पायी जाती है । इसमें प्ररोह के अग्रभाग में इन्टरमोड़ की लम्बाई कम हो जाती है तथा छोटे - छोटे अनेक प्ररोहों की वृद्धि हो जाती है । पत्तियाँ छोटी होकर गुच्छे का रूप धारण कर लेती हैं । 


( 2 ) पुष्पीय मालफोर्मेशन ( Floral malformation ) -

पुष्पीय मालफोर्मेशन में पुष्प सभी अंग मोटे हो जाते हैं । पुष्पक्रम की बढ़वार कम हो जाती है तथा उसमें नर फूलों की संख्या बढ़ जाती है । पुष्प क्रम के फूल बड़े आकार के हो जाते हैं तथा पुष्पक्रम गुच्छे का रूप धारणा कर लेते हैं । उन पर फल नहीं बनते व कुछ समय उपरान्त पुष्पक्रम झड़ जाते हैं ।

Please do not enter any spam link in the comment box.

Previous Post Next Post