गेहूँ की खेती कैसे करें | Gehu ki kheti kaise kare | Farming Study

  • गेहूँ का वानस्पतिक नाम (Botanical Name) - ट्रिटीकम एस्टीवम (Triticum Estivum)
  • गेहूँ का कुल (Family) - ग्रेमिनी या पोएसी (Gremini or Poissy)
  • गेहूँ में गुणसूत्र संख्या - 2n=42 डाइप्लोयड् में 14, टेट्राप्लायड में 28 एवं हेक्साप्लायड में 42 होती है । (2n=14, 2n=28, 2n=42)


गेहूँ की खेती कैसे करें (gehu ki kheti kaise kare):- गेहूं पूरे विश्व में एक प्रमुख खाद्यान्न फसल के रूप में जानी जाती है ।

सम्पूर्ण विश्व में भोजन की दृष्टि से गेहूं की खेती (wheat farming in hindi) का महत्व धान की खेती  के समान है तथा उत्पादन उपभोग के आधार पर भी यह धान के तुल्य है ।

विश्व की अधिकांश जनसंख्या भोजन में गेहूँ व इसके उत्पादों का प्रयोग करती है । वर्तमान समय में संपूर्ण विश्व में गेहूँ का कुल क्षेत्रफल 225 मिलियन हैक्टेयर एवं कुल उत्पादन 590 मिलियन टन है ।


गेहूं की खेती सबसे ज्यादा कहा होती है?

वर्तमान समय में भारत में गेहूँ का कुल क्षेत्रफल 25 मिलियन हैक्टेयर, कुल उत्पादन 70 मिलियन टन एवं ओसत उत्पादकता 26 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है ।

भारत में गेहूँ का सर्वाधिक उत्पादन उत्तर प्रदेश में लगभग 24 मिलियन टन है इसके अतिरिक्त गेहूं की उत्पादकता सबसे अधिक पंजाब राज्य लगभग 40 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है ।


गेहूँ की खेती का आर्थिक महत्व 

गेहूँ एक प्रोटीनयुक्त खाद्यान्न फसल है । इसके दानों में प्रोटीन 9 से 12%, वसा 2%, कार्बोहाइड्रेट 70%, खनिज लवण 3%, रेशा 2% तथा शेष नमी पाई जाती है ।


गेहूँ के पौधे के विभिन्न भागों का उपयोग निम्न प्रकार किया जाता है -

  • गेहूँ के दानों के आटे का प्रयोग रोटी, पूरी, कचौरी तथ पराठे आदि बनाने में किया जाता है ।
  • इससे बनी सूजी व मैदा का उपयोग हलुवा, खीर, भटूरे, नूडल्स, सेवई, छोटी सेवई तथा समोसे आदि व्यंजन बनाने में किया जाता है जो स्वादिष्ट नाश्ते के रूप में प्रयोग में लाये जाते हैं ।
  • गेहूँ के प्रोटीन में ग्लूटिन की अधिक मात्रा पाये जाने के कारण इसके आटे में मुलायम व स्पंजी खमीर सरलतापूर्वक बन जाता है जिससे इसका प्रयोग डबलरोटी, बन, मधुर डबलरोटी, बिस्किट और अन्य नानबाई उत्पादों के निर्माण में किया जाता है ।
  • गेहूँ का दलिया रोगी व्यक्तियों के लिये एक सुपाच्य एवं उत्तम आहार है ।
  • गेहूँ के आटे से निकला चोकर पशुओं के लिये उत्तम राशन के रूप में प्रयोग किया जाता है ।
  • गेहूँ का भूसा पशुओं के लिये पौष्टिक एवं सरलता से उपलब्ध चारा है । इसके भूसे का प्रयोग कागज एवं गत्ता बनाने के लिये भी किया जाता है ।
  • स्वचालित मशीसे खड़ी फसल की कटाई करने पर खेत में गेहूँ के पौधे के अवशिष्ट पदार्थ मृदा उर्वरता को बढ़ाने में सहायक होते हैं ।


गेहूँ का उत्पत्ति स्थान एवं इतिहास

गेहूँ के उत्पत्ति स्थान के बारे में वैज्ञानिकों के भिन्न - भिन्न मत है । प्राचीनकाल से ही विश्व के अनेक देशों में गेहूँ की खेती (gehu ki kheti) की जा रही है ।

स्विट्जरलैण्ड व इटली में प्राप्त अवशेषों के अध्ययन से पता चला है कि वहाँ भी गेहूं की खेती प्राचीनकाल की जा रही है । चीन में गेहूँ की खेती (gehu ki kheti) लगभग 2700 वर्ष ईसा पूर्व से की जा रही है तथा यहाँ के निवासी गेहूँ को पवित्र मानकर इसकी पूजा करते हैं ।

भारत में भी मोहनजोदड़ो व हड़प्पा की खुदाई में प्राप्त अवशेषों के अध्ययन से प्रमाणित हो चुका है कि यहाँ पर गेहूँ की खेती (gehu ki kheti) 300 वर्ष ईसा पूर्व से की जा रही है ।

कैण्डोल के अनुसार,

गेहूँ का उत्पत्ति स्थल टिगरिस व उसके आस - पास का क्षेत्र है और वहीं से इसका प्रचार व प्रसार विश्व के अन्य देशों को हुआ ।

वेवीलोव के अनुसार,

ड्यूरम गेहूँ का उत्पत्ति स्थल एवीसीनिया है ।

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गेहूँ की खेती का भौगोलिक वितरण

गेहूँ विश्व में सर्वाधिक क्षेत्रफल पर उगाई जाने बाली खाद्यान्न फसल है । विश्व में लगभग 225 मिलियन हैक्टेयर क्षेत्रफल पर गेहूँ की खेती (gehu ki kheti) की जाती है तथा इसका कुल उत्पादन लगभग 590 मिलियन टन है ।

विश्व के गेहूँ उत्पादक प्रमुख देशों में चीन, भारत, संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस व आस्ट्रेलिया आदि हैं । वर्तमान समय में विश्व में गेहूँ की औसत उत्पादकता लगभग 27 क्विटल/हैक्टेयर है ।

भारत में गेहूँ की खेती का क्षेत्रफल विश्व के कुल गेहूँ के क्षेत्रफल का लगभग 11% है । यहाँ लगभग 25 मिलियन हैक्टेयर क्षेत्रफल पर गेहूँ की खेती की जाती है और इसका उत्पादन लगभग 70 मिलियन टन । इसका उत्पादन यहाँ के सकल खाद्यान्न उत्पादन (gross cereal production - 210 million tonne) का लगभग एक तिहाई (34%) है । 

भारत में गेहूँ उत्पादक राज्यों में पंजाब, उत्तरप्रदेश, हरियाणा, मध्यप्रदेश, राजस्थान, बिहार, गुजरात व पश्चिमी बंगाल आदि प्रमुख हैं । सम्पूर्ण भारत में गेहूँ की औसत उत्पादकता लगभग 25 क्विटल/हैक्टेयर है ।


गेहूँ का वानस्पतिक विवरण

गेहूँ का वानस्पतिक नाम Triticum species है । यह Gramineae कुल से सम्बन्धित है । इसका पौधा एकवर्षीय होता है । इसके पौधे की ऊँचाई सामान्यतः 70 से 120 सेमी० तक होती है ।

इसके भ्रूण से प्राथमिक व द्वितीयक दोनों प्रकार की जड़ें निकलती हैं । इसके पौधों में तना, पत्तियाँ, पुष्पक्रम, पुष्प और दाना आदि सभी आवश्यक भाग पाये जाते हैं । इसका तना लम्बा, बेलनाकार व सीधा बढ़ने वाला होता है । इस पर 5-6 गाँठे पाई जाती हैं । तना गाँठों पर ठोस होता है और यह पत्तियों के आंशिक भागों से घिरा रहता ।

भूमि के निकट मुख्य तने के आधार से गेहूँ के पौधों में शाखायें निकलती हैं जिन्हें कल्ले फूटना कहते हैं । गेहूँ की बाली ही इसके पुष्पक्रम का विकसित रूप । पुष्पक्रम में पुष्प पाये जाते हैं जो छोटे व द्विलिंगी होते हैं तथा बाद में इनमें ही गेहूँ के दाने बनते हैं ।


गेहूँ की फसल के लिए उचित जलवायु एवं भूमि

गेहूँ मूल रूप से शीतोष्ण जलवायु की फसल है । यह उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों की प्रमुख खाद्यान्न फसल है । उत्तरी भारत में यह शरद् ऋतु में उगाई जाती है । गेहूँ के बीज के अंकुरण के लिये 20-22°C तापमान सबसे अधिक उपयुक्त होता है । पकते समय इस फसल के लिये 25-30°C तापमान उचित रहता है । 

फसल के पकते समय ओलावृष्टि फसल को हानि पहुँचाती है, परन्तु यह फसल पाले को सहन कर लेती है । फसल की वृद्धि के समय 40-50% आर्द्रता अनुकूल रहती है और 700-800 मिमी. वर्षा वाले क्षेत्र इसकी खेती के लिये उपयुक्त होते हैं । समुद्रतल से लेकर 4000 मीटर की ऊँचाई तक गेहूँ की फसल उगाई जाती है ।

गेहूँ की खेती (gehu ki kheti) विभिन्न प्रकार की भूमियों में की जा सकती है पर इसकी सफल खेती के लिये दोमट भूमि सर्वोत्तम रहती है ।

इसके अतिरिक्त जलोढ़ मृदाओं में गेहूँ की भरपूर उपज होती है । रेतीली व हल्की भूमियों में उचित जल एवं पोषण प्रबन्ध के साथ यह फसल अच्छी पैदावार देती है । भूमि का pH मान 6 से 8 तक उपयुक्त रहता है । भूमि में जल निकास की उचित व्यवस्था का होना आवश्यक है ।


गेहूँ की खेती कैसे करें | Gehu ki kheti kaise kare | wheat farming in hindi

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गेहूं की खेती के लिए उपयुक्त भूमि का चुनाव कैसे करें?

गेहूँ की उत्तम फसल के लिये दोमट व मटियार दोमट भूमि सर्वोत्तम मानी जाती है । भूमि का pH मान 6 से 8 के बीच होना चाहिये । भूमि में जल निकास की उचित व्यवस्था का होना अनिवार्य है ।


गेहूं की खेती के लिए खेत की तैयारी

गेहूँ सामान्यतः सिंचित क्षेत्रों में मक्का, ज्वार, बाजरा आदि खरीफ की फसलों के बाद बोया जाता है । इन फसलों की कटाई के पश्चात् खेत की दो बार मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करनी चाहिये । 

बुवाई के लिये तैयारी हेतु खेत में ढेले या खरपतवार आदि नहीं होना चाहिये । बीजों के अच्छे अंकुरण के लिये बुवाई से पूर्व खेत की एक सिंचाई (पलेवा) करना आवश्यक है । 

यदि गन्ना, लाही या धान के बाद गेहूँ की बुवाई करनी है तो ये फसलें काटने से पहले ही गेहूँ के लिए सिंचाई कर देनी चाहिए जिससे फसल काटने के तुरन्त बाद खेत तैयार करके गेहूँ की बुवाई की जा सके । बुवाई के पहले खेत में एक हल्की जुताई करके उसे समतल बना लेना चाहिये । खेत की 5-6 जुताइयाँ करने से खेत बुवाई के लिये तैयार हो जाता है ।


गेहूं की खेती के लिए भूमि का उपचार

गेहूँ के छोटे पौधों को दीमक, गुझिया और मिट्टी के अन्य कीड़ों से बचाने के लिये भूमि में अन्तिम जुताई के साथ एल्ड्रिन 5% को 25 किग्रा/हैक्टेयर की दर से भूमि में मिला देना चाहिये ।

मूलभूत आवश्यकताये -

गेहूँ की अधिक उपज प्राप्त करने के लिये उपयुक्त जाति का प्रमाणित बीज, सिंचाई, उर्वरक, खरपतवार नियन्त्रण एवं फसल सुरक्षा के सभी साधन उपलब्ध होने चाहिये तथा उचित समय पर समुचित ढंग से उनके क्रियान्वयन हेतु पूँजी का प्रबन्ध भी होना चाहिये ।


गेहूँ की खेती कब की जाती है?

गेहूँ की बुवाई भूमि में पर्याप्त नमी पर की जानी चाहिये अन्यथा उपज में कमी हो जाती है । दिसम्बर में गेहूं की बुवाई करने से गेहूँ की पैदावार 3 से 4 क्विटल/हैक्टेयर व जनवरी मेंं गेहूं की बुवाई करने पर 4 से 5 क्विटल/हैक्टेयर प्रति सप्ताह की दर से घटती है ।


गेहूं की प्रजातियाँ


बुवाई के उचित समय के अनुसार गेहूँ की फसल के लिये संस्तुत जातियाँ निम्न प्रकार है -

( i ) गेहूं की अगेती जातिय ( Early Varieties ) -

इन जातियों की बुवाई का समय 1 नवम्बर से 20 नवम्बर तक होता है ।

इस समय में बोई जाने वाली गेहूँ की मुख्य जातियाँ निम्नलिखित है -

UP - 2338, PBW - 343, UP - 2382, HD - 2687, RAJ - 3765, RAJ - 3077, K - 88 आदि ।


( ii ) समय पर बोये जाने वाली जातियाँ ( Timely sown Varieties ) -

गेहूँ की इन जातियों की बुवाई 20 नवम्बर से 7 दिसम्बर तक की जाती है ।

इस समय में बोई जाने वाली गेहूँ की मुख्य जातियाँ निम्नलिखित है -

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिये -

HD - 2329, PBW - 154, HD - 2204, HD - 2428, CPAN - 3004, UP - 2003, HD - 2281, UP - 368, PBW - 34, UP - 2338, UP - 2382, WH - 542, WH - 896, WH - 147, HD - 2687, PBW - 343, K - 88, PBW - 215, UP - 262, K - 7410, K - 8840, RIL - 3 व RIL - 4 आदि ।

पूर्वी उत्तर प्रदेश के लिये -

HP - 1102, UP - 262, UP - 2003, मालवीय -55, मालवीय -206 व K - 7410 आदि ।

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गेहूं की बीज दर कितनी होती है?

सामान्यतः गेहूँ की एक हैक्टेयर फसल की समय पर बुवाई के लिये 100 किग्रा. बीज का प्रयोग करना चाहिये ।


गेहूं में बीज का उपचार

गेहूँ की अच्छी उपज प्राप्त करने के लिये प्रमाणित बीज का प्रयोग करना चाहिये । बीज उपचारित न हो तो उसे थायराम 2.5 ग्राम प्रति किग्रा. बीज की दर से उपचारित कर लेना चाहिये । 

खुला कंडुवा की रोकथाम के लिये बीज को वाइटावैक्स, डेरोसॉल अथवा बी - स्टेन आदि में से किसी भी एक कवकनाशी द्वारा उपरोक्त दर से ही उपचारित कर बुवाई करनी चाहिये ।


गेहूं की बुवाई की प्रमुख विधियां

खेत में गेहूँ के बीज के समान अंकुरण के लिये पर्याप्त नमी में बीज की बुवाई की जानी चाहिये । बीज बुवाई के पश्चात् स्थानीय आवश्यकता के अनुसार खेत में पाटा चलाना चाहिये ।


गेहूँ की बुवाई के लिये निम्नलिखित विधियाँ प्रयोग में लाई जा सकती है -

( i ) छिटकवां विधि ( Broadcasting Method ) -

खेत में पर्याप्त नमी होने पर ही इस विधि द्वारा गेहूँ की बुवाई की जा सकती है । इसमें बीज की मात्रा अन्य विधियों की तुलना में अधिक प्रयोग की जाती है, क्योंकि बहुत - सा बीज अधिक गहराई पर पड़ने के कारण अंकुरित नहीं हो पाता है । 

इस विधि को अपनाने से धन व श्रम की बच होती है । किसानों के पास पूँजी व श्रम के अभाव में इस विधि का बहुतायत में प्रयोग किया जाता है ।


( ii ) हल के पीछे हाथ से ( With hand behind the plough ) -

इस विधि में एक व्यक्ति हल चलाकर खेत में कूण्ड बनाता जाता है और दूसरा व्यक्ति उसके पीछे - पीछे बीज कूण्ड में डालता जाता है ।बुवाई के पश्चात् खेत में पाटा लगा दिया जाता है । यह विधि भूमि में अधिक नमी होने पर अपनाई जाती है ।


( iii ) हल के पीछे पोरे से ( With Pora behind the Plough ) -

इस विधि में हल के पीछे पोरा बाँध लिया जाता है । एक व्यक्ति हल चलाकर खेत में कूण्ड बनाता जाता है और दूसरा व्यक्ति पोरे की सहायता से कूण्ड में बीज की बुवाई करता जाता है और बुवाई के बाद पाटा लगा दिया जाता है ।


( iv ) सीडड्रिल द्वारा ( By seed drill ) -

बुवाई का क्षेत्रफल अधिक होने पर बैलों अथवा ट्रैक्टर चालित बीज बोने की मशीन द्वारा बुवाई की जाती है । इस मशीन में निश्चित मात्रा में बीज भर लिया जाता है और आवश्यकतानुसार मशीन को समायोजित करते हुये अन्तरण स्थापित कर लेते हैं । इन मशीनों द्वारा बीज के साथ उर्वरकों का प्रयोग भी किया जा सकता है । 

मशीन द्वारा बुवाई करने के समय खेत में पर्याप्त नमी का होना आवश्यक है । इस विधि से कम समय में अधिक क्षेत्रफल की बुवाई की जा सकती है ।


( v ) डिबलर द्वारा ( By dibbler ) -

गेहूँ की बुवाई के लिये डिबलर का प्रयोग करना एक सरल एवं उत्तम विधि है । इस विधि से बुवाई करने के लिये खेत की उत्तम तैयारी कर लेनी चाहिये । इस विधि से बुवाई करने पर श्रम व समय अधिक लगता है । इसीलिये यह विधि छोटे क्षेत्रफल में बुवाई के लिये उपयुक्त मानी जाती है । 

इस विधि से बुवाई करने पर बीज की मात्रा लगभग एक चौथाई ही लगती है । बीज कम मात्रा में उपलब्ध होने पर तथा उसक मूल्य अधिक होने पर इस विधि को अपनाना उचित रहता है । उपरोक्तविधियों के अतिरिक्त गेहूँ की बुवाई की जीरो टिलेज विधि (Zero - tillage method) भी आजकल प्रचलन में है ।


गेहूं की बुवाई की गहराई 

गेहूँ के बीज की बुवाई 5 सेमी० की गहराई तक की जानी चाहिये । इससे अधिक गहराई पर बुवाई करने से अंकुरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है ।

अन्तरण -

गेहूँ के पौधों से अधिकतम उपज लेने के लिये इनके पौधों की एक पंक्ति से दूसरी पंक्ति की दूरी लगभग 20-22 सेमी ० रखनी चाहिये ।

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गेहूं की खेती के लिए आवश्यक खाद एवं उर्वरक मात्रा

गेहूँ की अधिकतम उपज प्राप्त करने के लिये पोषक तत्वों का सन्तुलित व उचित मात्रा में सही समय पर प्रयोग करना आवश्यक है ।


नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाशयुक्त उर्वरकों का प्रयोग व उनकी मात्रा निम्न प्रकार -

( i ) नाइट्रोजन -

सामान्यत: अधिक उपज एवं लाभ के लिये लगभग 100-120 किग्रा० नाइट्रोजन/हैक्टेयर प्रयोग करनी चाहिये । यदि गेहूँ दलहन या हरी खाद वाली फसलों के बाद या परती भूमि में बोया जाये तो नाइट्रोजन की यह मात्रा घटाकर लगभग 80 किग्रा./हैक्टेयर की जा सकती है । नाइट्रोजन की दो - तिहाई या आधी मात्रा बोने के समय खेत में प्रयोग की जाती है और शेष मात्रा प्रथम सिंचाई से पूर्व टापड्रैसिंग के रूप में देनी चाहिये । अधिक उपज देने वाली किस्मों के लिये नाइट्रोजन उर्वरक प्रयोग करने की उचित विधि अपनानी चाहिये । 

धान के बाद गेहूँ बोने पर नाइट्रोजन की कुल मात्रा का दो तिहाई भाग बुवाई के समय तथा शेष एक तिहाई भाग प्रथम सिंचाई के समय देना चाहिये । बलुई भूमि में दो बार में उर्वरक का प्रयोग करना चाहिये ।


( ii ) फास्फोरस एवं पोटाश -

मिट्टी की जाँच के आधार फास्फोरस एवं पोटाशयुक्त उर्वरकों का प्रयोग करना लाभप्रद रहता है । यदि मिट्टी की जाँच नहीं कराई गई हो तो 80 किग्रा. फास्फोरस व 40 किग्रा. पोटाश प्रति हैक्टेयर की दर से प्रयोग करना उचित रहता है ।

फास्फोरस तथा पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा बीज की बुवाई के समय बीज से 5 सेमी. नीचे तथा 5 सेमी. की दूरी पर प्रयोग करनी चाहिये एक ही खेत में कई वर्षों तक लगातार धान - गेहूँ फसल चक्र अपनाने पर गेहूँ की उपज में कमी आने लगती है ।

ऐसी अवस्था में हरी खाद या गोबर की खाद या कम्पोस्ट खाद 10-12 टन प्रति हैक्टेयर की दर से धान की फसल से पूर्व प्रयोग करनी चाहिये । जिंक की कमी में गेहूँ के पौधों की पत्तियों से हरा रंग लुप्त होने लगता है व पत्तियाँ आकार में छोटी रह जाती हैं ।

पौधों में प्रकाश संश्लेषण व नादट्रोजन की उपापचयी क्रियाओं में महत्वपूर्ण स्थान होता है । धान की फसल इस तत्व की कमी के लक्षण दिखाई पड़ने पर खेत में जिंक की आपूर्ति के लिये गेहूँ की फसल की बुवाई के समय 25 किग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हैक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिये ।

खड़ी फसल में जिंक की कमी के लक्षण दिखने पर 5 किग्रा. जिंक सल्फेट ( 21 % Zn ) तथा 20 किग्रा ० यूरिया 1000 लीटर जल में घोलकर एक हैक्टेयर खेत में छिड़काव करना चाहिये । यदि खेत में गन्धकयुक्त उर्वरकों का प्रयोग नहीं किया जाता है तब गन्धक की आवश्यकता को पूरा करने के लिये 200 किग्रा. जिप्सम पलेवा करने से पूर्व प्रयोग करना लाभदायक है ।


गेहूं की फसल में जल प्रबन्ध

गेहूँ की फसल में अधिक गहरा पानी लगाना हानिकारक रहता है अत: छोटी - छोटी बनाकर हल्की सिंचाई की जानी चाहिये । हल्की सिंचाई से 24 घण्टे पूर्व या 2-3 दिन पश्चात् गेहूँ की खड़ी फसल में यूरिया का प्रयोग टापड्रैसिंग के रूप में करना चाहिये । भारी मिट्टियों में अपेक्षाकृत कम लेकिन गहरी सिंचाइयों की आवश्यकता होती है गेहूँ की फसल के पौधों को वृद्धि की दूसरी सिंचाई विभिन्न महत्वपूर्ण अवस्थाओं पर 5-6 सिंचाइयों की आवश्यकता पड़ती है ।

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गेहूँ की फसल की क्रंतिक अवस्थायें कोन कोन सी होती है?


गेहूँ की फसल में सिंचाई की विभिन्न अवस्थायें होती है, जो निम्नलिखित है -

  1. पहली सिंचाई ताजमहल अवस्था पर बुवाई के 20-25 दिन बाद
  2. कल्ले फूटने की अवस्था पर बुवाई के 40-45 दिन बाद
  3. तीसरी सिंचाई गाँठे बनने की अवस्था पर बुवाई के 60-65 दिन बाद
  4. चौथी सिंचाई पुष्प बनने की अवस्था पर बुवाई के 80-85 दिन बाद
  5. पाँचवीं सिंचाई दुग्धावस्था पर बुवाई के 100-105 दिन बाद
  6. छठी सिंचाई दाना भरते समय बुवाई के 100-115 दिन बाद


गेहूँ की फसल में लगने वाले खरपतवार एवं उनका नियन्त्रण

गेहूँ की फसल में रबी ऋतु के लगभग सभी खरपतवार जैसे चौड़ी पत्तियों वाले (गजरी, प्याजी, बथुआ, खरतुआ, हिरनखुरी, सेंजी, अंकरा, अंकरी, आरजीमोन या सत्यानाशी, पोहाली व जंगली मटर आदि) तथा संकरी पत्तियों वाले (दूबघास, गेहूँसा व जंगली जई आदि) की समस्या रहती है ।

इनकी रोकथाम के लिये -

निराई के अतिरिक्त खरपतवारनाशी रसायनों का प्रयोग भी किया जाता है । चौड़ी पत्तियों के खरपतवारों पर नियन्त्रण के लिये 600 ग्राम 24 - D (सोडियम साल्ट 80 % a.i.) को 800 लीटर जल में घोलकर प्रति हैक्टेयर की दर से बुवाई के 30 दिन बाद छिड़काव करना चाहिये । संकरी पत्तियों वाले खरपतवारों पर नियन्त्रण के लिये 1200 ग्राम आइसोप्रोटयूरान (75 % ai.) को 800 लीटर जल में घोल बनाकर प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिये ।

दोनों रसायनों को एक साथ मिलाकर भी प्रयोग किया जा सकता है । सभी तरह के खरपतवारों पर नियन्त्रण के लिये पेन्डीमैथालीन 30 EC 3.3 लीटर प्रति हैक्टेयर की दर से 800 लीटर जल में घोलकर बुवाई के दूसरे दिन छिड़काव करना चाहिये ।


गेहूँ की फसल में लगने वाले रोग एवं उनका नियंत्रण कैसे करें?

फसल के पौधों का स्वास्थ्य अच्छा होने पर इसकी कीटों व रोगों से संघर्ष करने की क्षमता बढ़ जाती है । गेहूँ की फसल को बहुत से कीट व बीमारियाँ हानि पहुंचाते रहते हैं ।


( a ) गेहूं की फसल में लगने वाले कीट एवं उनका नियन्त्रण -

गेहूँ की फसल को हानि पहुँचाने वाले कीटों में दीमक, गुजिया वीविल, आर्मी वर्म तथा आदि प्रमुख हैं ।


( i ) दीमक ( Termite ) -

दीमक के कीड़ों का प्रकोप खेत की मिट्टी से प्रारम्भ होता है । बीज की बुवाई से लेकर अंकुरण व फसल की कटाई तक प्रत्येक अवस्था ये पौधों को खाकर उन्हें नष्ट करते रहते हैं । इनका प्रकोप असिंचित क्षेत्रों तथा सूखे की स्थिति में अधिक होता है । खेत में कच्चे गोबर की खाद के प्रयोग से भी इसका प्रकोप बढ़ जाता है ।

दीमक के नियन्त्रण के लिये -

लिन्डेन 1.3% या सेवीडाल 20-25 किग्रा./हैक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिये । क्लोरोपायरीफास 20 EC की 3-4 ली. मात्रा सिंचाई के समय प्रति हैक्टेयर की दर से प्रयोग करने पर दीमक नष्ट हो जाती है ।

इसके अतिरिक्त एल्ड्रिन 5%, डस्ट अथवा BHC 10% डस्ट की 20-25 किग्रा० मात्रा/हैक्टेयर की दर से बुवाई से पूर्व प्रयोग की जा सकती है ।


( ii ) गुजिया वीविल ( Gujhia - Weevil ) -

ये कीड़े गेहूँ की फसल को अंकुरण के समय से ही खाकर हानि पहुँचाते रहते हैं । इनका प्रकोप सर्दी के मौसम में ज्यादा होता है । अधिक प्रकोप से फसल पूर्णतया नष्ट हो जाती है । इनके नियन्त्रण के उपाय दीमक के समान हैं ।


( i ) चूहें ( Rats ) -

चूहें गेहूं की फसल को भारी मात्रा में हानि पहुँचाते हैं ।

इन पर नियन्त्रण के लिये - 

प्रत्येक बिल में एल्यूमीनियम फास्फाइड 0-5 ग्राम की एक गोली छोटे बिल में या 3 ग्राम की एक गोलो बड़े बिल में डाल देनी चाहिये । गेहूँ की खड़ी फसल में चूहे का प्रकोप होने पर जिंक फास्फाइड दो भाग, सरसों का तेल दो भाग एवं गेहूँ या मक्का का आटा 96 भाग मिलाकर गोलियाँ बना लेनी चाहिये तथा उन्हें चूहों के बिलों में व आस - पास डाल देना चाहिये ।


( b ) गेहूँ की फसल में लगने वाली बीमारियाँ एवं उनका नियन्त्रण -

गेहूं की फसल को लगने वाले रोगों में गेरूई या किट्ट रोग, मूल विगलन, अनावृत कण्ड, करनाल बण्ट, सेहूँ रोग, चूर्ण आसित रोग व अंगमारी रोग आदि प्रमुख हैं ।


( 1 ) गेरूई रोग ( Rust disease ) -

गेहूँ के काले गेरूई रोग में पौधों के पत्ते, तने, पर्णछिद्र व सन्धि स्तम्भ पर गहरे भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं ।

नियन्त्रण हेतु - रोगरोधी किस्में (HD - 2285, WH - 157) उगानी चाहिये अथवा कैप्टाफ -50 W का 3 ग्राम/लीटर जल के साथ मिलाकर छिड़काव करना चाहिये ।

भूरे गेरुई रोग में गोल, नारंगी धब्बे बन जाते हैं ।

इस पर नियन्त्रण हेतु - रोगरोधी किस्में (UP 2003, मालवीय -12, HD - 2204 या UP - 2338) को उगाना चाहिये अथवा कॉन्टाफ 5 E2 मिली./लीटर जल में घोलकर छिड़काव करना चाहिये । पीली गेरूई रोग में पत्तियों पर छोटे, अण्डाकार व पीले रंग के धब्बे पड़ जाते हैं ।

इस पर नियन्त्रण के लिये - 

रोगरोधी किस्में (HD - 2329, PBW - 154, PBW - 226 व UP 1109 उगानी चाहिये अथवा कैप्टाफ 50 W 3 ग्राम/लीटर जल में घोलकर छिड़काव करना चाहिये ।


( ii ) मूल विगलन रोग ( Root rot disease ) -

इस रोग में पौधों की जड़ों में हल्के भूरे रंग का गलन हो जाता है ।

इस रोग पर नियन्त्रण हेतु - 

कैप्टाफ 50 W 5 ग्राम/ किग्रा० बीज की दर से उपचारित कर बुवाई करनी चाहिये ।


( iii ) अनावृत कण्ड ( loose smut ) -

रोग - इस रोग के प्रकोप से रोगी पौधे की बालियाँ काले चूर्ण का रूप ले लेती हैं और दाने नहीं पड़ते हैं ।

इस रोग पर नियन्त्रण के लिये - 

रोगरोधी किस्में (UP - 2003, HD - 2329, PBW - 154 व PBW - 226) उगानी चाहिये अथवा बुवाई से पूर्व बीज को कैप्टाफ 50 W की 5 ग्राम/किग्रा. बीज की दर से उपचारित कर बुवाई करनी चाहिये ।


गेहूं की फसल की कटाई व मड़ाई का सही समय

फसल की बालियाँ पक जाने पर इसकी कटाई शीघ्रता से कर लेनी चाहिये अन्यथा इसके दाने झड़ने लगते हैं । कटाई के बाद शीघ्रतापूर्वक थ्रेशर की सहायता से मढ़ाई का कार्य कर लेना चाहिये ।


गेहूँ की फसल से प्राप्त उपज एवं उसका भण्डारण

सिंचित एवं समय पर बोई गई गेहूँ की फसल से सामान्यतः उन्नत विधि से खेती करने पर 60 क्विटल/हैक्टेयर तक दाना एवं 80 क्विटल/हैक्टेयर भूसे की उपज प्राप्त होती है । अनाज को टीन के बने बड़े - बड़े वायुरोधी पात्रों में लगभग 15% नमी की स्थिति में एल्युमीनियम फास्फाइड की 6 ग्राम मात्रा प्रति टन की दर से मिलाकर पात्रों को बन्द कर देना चाहिये । आस - पास के क्षेत्रों को मैलाथियान 50% के एक प्रतिशत जलीय घोल से साफ करना चाहिये ।

1 Comments

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  1. क्या यह मुमकिन हो सकता है हम साल में दो बार गेहूं की खेती करें?
    Tinkujia WWE

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