ट्रिटीकेल क्या है एवं ट्रिटीकेल फसल की खेती | triticale meaning in hindi

  • वनस्पति नाम (Botanical Name) - ट्रिटिकोस्केल (Triticosecale)
  • कुल (Family) - ग्रेमिनी (graminae) 
  • गुणसूत्र संख्या (Chromosomes) - 2n=56
  • संकरण (Cross) - गेहूं × राई 

विश्व की प्रथम मानव निर्मित धान्य फसल ट्रिटीकेल (triticale in hindi) है । गेहूँ व राई की भाँति ही यह भी एक ग्रेमिनी (graminae) कुल का पौधा है ।

पौधे की अधिक लम्बाई, उसके गिरने की समस्या, लम्बे परिपक्व काल, बीज बिखरने की समस्या, बीज का आकर्षणरहित होना तथा कम उपज होने के कारण ट्रिटीकेल (triticale in hindi) किसानों में लोकप्रिय नहीं हो पाई ।


ट्रिटीकेल क्या है अर्थ एवं परिभाषा (triticale meaning in hindi)


'ट्रिटीकेल' (triticale meaning in hindi) दो शब्दों से मिलकर बना है -

ट्रिटी (TRITI) और केल (CALE) अर्थात् TRITICALE TRITI + CALE यहाँ ट्रिटी (TRITI) गेहूँ के वानस्पतिक नाम Triticum species के वंश TRITIcum तथा केल (CALE) राई के वानस्पतिक नाम Secale cerale के वंश Se CALE से लिया गया है ।

इन दोनों शब्दों को मिलाकर ट्रिटीकेल (TRITICALE) शब्द की उत्पत्ति हुई है ।


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ट्रिटीकेल का उद्भव एवं विकास

गेहूँ के पौधों की अधिक दानों की उपज वाले गुण एवं राई के पौधों की अधिक सर्दी सहन करने वाले गुणों को मिलाकर एक नई फसल विकसित करने के उद्देश्य से गेहूँ एवं राई के पौधों के बीच संकरण कराकर इस फसल का विकास किया गया और इसका नाम ट्रिटीकेल (triticale in hindi) रखा गया ।

इसे राई व गेहूँ के पौधों के बीच संकरण से विकसित करने के कारण प्रायः राई संकरित गेहूँ (rye crossed wheat) भी कहा जाता है ।


ट्रिटीकेल का वानस्पति विवरण

ट्रिटीकेल (triticale in hindi) के पौधे गेहूँ के समान ही होते हैं ।

इसमें बालियाँ व गेहूँ की भाँति ही दाने भी पाये जाते हैं । इसके पौधों में कल्ले अधिक संख्या में निकलते हैं इसीलिये वानस्पतिक भाग की उपज गेहूँ की तुलना में अधिक होती है ।

अतः चारे के लिये ट्रिटीकेल की फसल (triticale ki fasal) अधिक महत्वपूर्ण है । इसके दाने गेहूँ के लगभग समान आकार के, परन्तु गेहूँ की अपेक्षा सिकुड़े हुये होते हैं तथा लाल रंग के होते हैं ।


ट्रिटीकेल की खेती लिए उपयुक्त जलवायु एवं भूमि

राई के समान ही एक ठण्डी जलवायु की फसल है । राई धान्य फसलों में अधिक सर्दी सहन करने वाली फसल है ।

अतः राई का गेहूँ से संकरण कराने पर ठण्डी जलवायु के प्रति अनकूलन का गुण ट्रिटीकेल (triticale in hindi) में राई से समायोजित किया गया ।

ठण्डी जलवायु का पौधा होने के कारण उत्तरी भारत के पर्वतीय क्षेत्रों में इस फसल की खेती की पर्याप्त सम्भावनायें हैं । राई की फसल कम उर्वरता वाले तथा सिंचाई की कम सुविधाओं वाले क्षेत्रों में भी अच्छी उपज देती है । राई का यही गुण ट्रिटीकेल (triticale in hindi) में भी पाया जाता है ।

ट्रिटीकेल (triticale in hindi) के लिये बलुई दोमट मिट्टी सर्वाधिक उपयुक्त रहती है फिर भी अन्य धान्य फसलों के लिये उपयोगी न समझे जाने वाली मृदाओं में भी यह अच्छी पैदावार देती है । खेत में जल निकास की उत्तम व्यवस्था आवश्यक होती है तथा अधिक नमी की अवस्था इसके पौधों के लिये अनुकूल नहीं रहती है ।


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ट्रिटीकेल की खेती कैसे की जाती है?

ट्रिटीकेल की फसल (triticale ki fasal) उत्तरी भारत में गेहूँ की तरह ही रबी के मौसम में उगाई जा सकती है । इसके लिये खेत की तैयारी गेहूँ के समान ही की जाती है ।

बुवाई की विधियाँ भी गेहूँ के समान ही छिटकवां, हल की सहायता से, सीडड्रिल द्वारा व डिबलर द्वारा की जा सकती है । नमी कम होने पर बीज को गेहूँ से थोड़ा अधिक गहराई पर बोया जा सकता है ।

इस फसल की उपज पर खाद एवं उर्वरकों के प्रयोग से अपेक्षित परिणाम प्राप्त हुये हैं और इस दिशा में अनुसन्धान कार्य कृषि वैज्ञानिकों द्वारा किया जा रहा है ।

सिंचाई अधिक करने पर इसके पौधे गिरने लगते हैं व असिंचित अवस्थाओं में पौधा स्थिर रहता है और उपज अच्छी होती है । असिंचित क्षेत्रों में इसकी उपज लगभग 25 क्विटल / हैक्टेयर तक हो जाती है, जबकि सिंचित अवस्थाओं में उपज 35 क्विटल / हैक्टेयर तक उपज प्राप्त की जा सकती है ।


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ट्रिटीकेल (triticale in hindi) के विकास पर शोधकार्य लगभग सन् 1935 में प्रारम्भ किया गया और यह फसल विकसित की गई, परन्तु इस फसल में आशातीत् परिणाम प्राप्त नहीं हो सके । इसका पौधा ऊँचाई में लम्बा हुआ जिससे इसके गिरने की समस्या रहती थी ।

इसका परिपक्व काल (maturity period) अधिक था । इसमें बीज बिखरने (seed shattering) की समस्या भी रहती थी । इसके बीज के रंग में आकर्षण नहीं था तथा बीज सिकुड़ा हुआ था ।

ट्रिटीकेल (triticale in hindi) उपज गेहूँ की तुलना में अपेक्षाकृत कम रही तथा वातावरण के प्रति इसका अनुकूलन भी असन्तोषजनक रहा जिसके परिणामस्वरूप यह फसल केवल शोध केन्द्रों तक ही सीमित रही ।


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