सरसों कितने प्रकार की होती है इनका वर्गीकरण एवं विशेषताएं लिखिए | Farming Study

भारत वर्ष में सरसों वर्ग की कई प्रकार की फसलें उगाई जाती है जो रबी के मौसम में उगाई जाने वाली महत्वपूर्ण फसलों में से है ।

सरसों वर्ग की प्रमुख फसलें -
तोरिया
सरसों
राई तथा तारामिरा आदि ।

सरसों कितने प्रकार की होती है | sarso ke parkar | types of mustard in hindi

भारतवर्ष के चिर-परिचित कृषि वैज्ञानिक डॉ० धर्मपाल सिंह (1958) के अनुसार सरसों वर्ग की फसलों का वर्गीकरण सुस्पष्ट एवं सरलतम रूप में निम्न प्रकार है -

(A) तोरिया ( Toria ) – Brassica compestris var. toria -
( i ) पीली तोरिया ( Yellow toria ) – B. compestris var. yellow toria
( ii ) भूरा तोरिया ( Brown Toria ) – B. compestris var. brown toria.
( iii ) काला तोरिया ( Black Toria ) – B. compestris var. black toria.

(B) सरसों ( Sarson ) - Brassica compestris var. mustard. -
( i ) पीली सरसों ( Yellow Sarson ) - B. compestris var. yellow mustard.
( ii ) भूरी सरसों ( Brown Sarson ) - B. campestris var. brown mustard.

(C) राई सरसों या राई ( Indian Mustard ) – Brassica juncea.

सरसों परिवार के पौधों का वर्गीकरण | sarson ka vargikaran

पीली व भूरी सरसों (Yellow & Brown Sarson) और पीले, भूरे व काले तोरिये (Yellow, brown & black toria) को सम्मिलित रूप से (rapeseed) कहा जाता है ।

राई सरसों या राई को भारतीय सरसों (Indian mustard) कहा जाता है । इसके विभिन्न नाम राई, लाहा या राया आदि हैं । इसका वानस्पतिक नाम Brassica Juncea है ।


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सरसों कितने प्रकार की होती है इनका वर्गीकरण एवं विशेषताएं लिखिए

सरसों या राई ( Indian Mustard ) -

राई सरसों का उत्पत्ति स्थान चीन आस - पास का क्षेत्र माना जाता है । यहीं से इसका प्रचार व प्रसार भारत व अन्य देशों को हुआ है ।

भारत में इसकी खेती बहुतायत से की जाती है और यहाँ इसे भारतीय सरसों (India mustard) कहा जाता है । इसे राई, राई सरसों, सरसों, राया व लाहा आदि विभिन्न नामों से भी जाना जाता है । इसकी बुवाई का उपयुक्त समय 1 से 15 सिम्बर तक होता है । इसके पकने की अवधि लगभग 135 दिन होती है तथा यह फसल मार्च - अप्रैल तक पककर कटाई के लिये तैयार हो जाती है । इसकी उपज लगभग 25 क्विटल/हैक्टेयर तक होती है । इसके बीजों में 30-34% तक तेल की मात्रा पाई जाती है ।

इसकी प्रमुख जातियाँ वरूणा (Type - 59), वरदान, वैभव, क्रान्ति, शेखर, सौरभ, पूसा बोल्ड, प्रकाश, बसन्ती व कृष्णा आदि हैं ।


भारतीय सरसों या राई की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित है -

  • इसके विभिन्न नाम राई, राया, लाहा, सरसों व भारतीय सरसों (Indian mustard) आदि विभिन्न नामों से भी जाना जाता है । काले तोरिया को लाही के नाम से जाना जाता इनका वानस्पतिक नाम -
  • लाहा ( Laha ) – Brassica juncea.
  • लाही ( Lahi ) – Brassica campestris var. black toria
  • इसके पौधे सीधे बढ़ने वाले व बहुत सी शाखाओं वाले होते हैं । पत्तियाँ शाखाओं पर लगती हैं ।
  • इसकी बुवाई का उपयुक्त समय 1 से 15 अक्टूबर तक होता है ।
  • इसमें गुणसूत्रों की संख्या 36 होती है ।
  • इसके पौधों की ऊँचाई 80-180 सेमी० तक होती है ।
  • इसके बीज तोरिया की तुलना में पतले होते हैं ।
  • इसके बीज खुरदुरे, पतले, लम्बे और गहरे भूरे रंग के होते हैं ।
  • इनकी जड़ें मूसला होती हैं व भूमि में गहराई तक जाती हैं ।


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पीली सरसों ( Yellow Mustard ) -

पीली सरसों का उत्पत्ति स्थान उत्तरी भारत माना जाता है । उत्तरी भारत में इसकी खेती उपज भी बहुतायत में की जाती है । इसके बीजों का रंग पीला होने के कारण इसको पीली सरसों (yellow mustard) कहा जाता है ।

इसकी बुवाई का उपयुक्त समय 1 से 10 अक्टूबर तक होता है । इसकी पकने की अवधि लगभग 150 दिन होती है और यह फसल अप्रैल में पककर कटाई के लिये तैयार हो जाती है । इसकी उपज क्षमता लगभग 15 क्विटल / हैक्टेयर होती है ।

पीली सरसों की प्रमुख जातियों में VS-2, Type-42, K-88 व पूसा गोल्ड आदि हैं । पीली सरसों में 40-44% तक तेल की मात्रा पाई जाती है ।


तोरिया (rapeseed) की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित है -

  • इस वर्ग में पीला व भूरा तोरिया तथा पीली व भूरी सरसों सम्मिलित होती हैं ।
  • इनके वानस्पतिक नाम B. campestris var. yellow/brown sarson तथा B. campestris var yellow/brown toria हैं ।
  • इसके पौधे सीधे बढ़ने वाले व कम शाखाओं वाले होते हैं । पत्तियाँ सीधे तने से निकलती हैं ।
  • इनकी बुवाई का उपयुक्त समय 1 से 15 सितम्बर तक होता है ।
  • इसमें गुणसूत्रों की संख्या 20 होती है ।
  • इनके पौधों की ऊँचाई 50-120 सेमी० तक होती है ।
  • इनके बीज सरसों की तुलना में मोटे होते हैं ।
  • इनके बीज चिकने, मोटे, छोटे और पीले व भूरे रंग के होते हैं ।
  • जड़े झकड़ा होने के कारण भूमि की ऊपरी सतह में फैली रहती है ।

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