कैसे करें सूरजमुखी की खेती (surajmukhi ki kheti) जिससे हो दोगुना लाभ | Farming Study

  • सूरजमुखी का वानस्पतिक नाम (Botanical Name) - हैलियन्थस ऐनस (Helianthus annus)
  • सूरजमुखी का कुल (Family) - कम्पोजिटी (compositae)
  • गुणसूत्र संख्या (Chromosomes) - 2n=34

भारतवर्ष में मूंगफली एवं सरसों के बाद सूरजमुखी की खेती (surajmukhi ki kheti) का तिलहनी फसलों में तीसरा स्थान है ।

सूरजमुखी यहाँ वर्ष भर के तीनों मौसमों में उगाई जाने वाली तिलहनी फसल है । सूरजमुखी की फसल (surajmukhi ki fasal) मुख्यत: खाने योग्य तेल प्राप्ति के लिए की जाती है ।

सूरजमुखी के बीजों से लगभग 40% तक तेल प्राप्त होता है एवं सूरजमुखी के तेल में लगभग 20% प्रोटीन पाई जाती है । इसके तेल की गुणवत्ता असंतृप्त वसीय अम्लों की प्रतिशत मात्रा से निर्धारित की जाती है । तापमान अनुकूल स्तर से अधिक रहने पर सूरजमुखी के तेल में लिनोलिक की प्रतिशत मात्रा कम रहती है और तेल कम गुणवत्ता युक्त माना जाता है 

सूरजमुखी विश्व की एक वानस्पतिक तेल वाली महत्वपूर्ण फसल है । भारत में सोयाबीन, सरसों एवं मूंगफली के बाद तिलहनी फसलों में सूरजमुखी की फसल (surajmukhi ki fasal) का महत्वपूर्ण स्थान है ।

भारतवर्ष में सूरजमुखी की खेती सभी ऋतु में की जाती है, अतः इसे सभी ऋतुओं की फसल भी कहा जाता है । सूरजमुखी की खेती (surajmukhi ki kheti) मुख्य: तेल एवं बीज प्राप्ति के लिए की जाती है । 


सूरजमुखी की फसल का क्या महत्व है?

सभी प्रकार के खाद्य तेलों में सूरजमुखी के तेल का एक विशेष महत्व है । सभी खाद्य तेलों में वसीय अम्ल (fatty acids) पाये जाते हैं । ये वसीय अम्ल सन्तृप्त (saturated) अथवा असन्तृप्त (unsaturated  हो सकते हैं ।

तेल में सन्तृप्त वसीय अम्ल की प्रतिशत मात्रा अधिक होने पर उसके उपयोग से मनुष्यों को हृदयवाहिकाओं के रोग (Cardiovascular disease) होने की सम्भावना रहती है ।

अत: खाद्य तेल में सन्तृप्त वसीय अम्लों (saturated fatty acids) की मात्रा कम तथा असन्तृप्त वसीय अम्लों (unsaturated fatty acids) की मात्रा अधिक होनी चाहिये । असन्तृप्त अम्लों में लिनोलेनिक अम्ल (Linolenic acid) व लिनोलिक अम्ल (Linolelic acid) पाये जाते हैं ।

सूरजमुखी के तेल में लिनोलेनिक व लिनोलिक अम्लों की कुल मात्रा लगभग 92% तक पाई जाती है जो अन्य खाद्य तेल सरसों व मूंगफली आदि की तुलना में अधिक है । अतः चिकित्सकों द्वारा हृदयरोगियों को सूरजमुखी के तेल के प्रयोग की संस्तुति की जाती है ।


सूरजमुखी की फसल के उपयोग

भारत में सूरजमुखी की फसल (surajmukhi ki fasal) तेल एवं बीजों के अतिरिक्त निम्नलिखित उपयोग में लाई जाती है -

  • इसके तेल का उपयोग मनुष्य द्वारा भोजन, सब्जी तथा अन्य खाद्य पदार्थों को तैयार करने में किया जाता है ।
  • इसका तेल अन्य वानस्पतिक तेलों जैसे सरसों एवं तोरिया की तुलना में उच्चकोटि का होता है । यह हृदय रोगियों के लिये अन्य तेलों की अपेक्षा अधिक उपयुक्त होता है ।
  • यह एक अल्पअवधि में उगने वाली फसल है । अतः इसे बहुफसली फसल चक्रों में सम्मिलित करना सरल रहता है ।
  • इसकी जड़ें भूमि में गहराई तक जाती हैं अतः इसका पौधा सूखा सहन करने की क्षमता रखताा है ।
  • सूरजमुखी की फसल भारतवर्ष में वर्षभर के सभी मौसमों में उगाई जाती है । अतः इसे एक सभी ऋतुओं की फसल (All season crop) कहा जाता है ।


सूरजमुखी के पौधों की प्रकाशभिद् प्रवृत्ति को स्पष्ट कीजिये?

सूरजमुखी एक प्रकाशअनुग्राही फसल है । सूरजमुखी का पौधा प्रकाशअनुग्राही (phototropic) होता है ।

इसके पौधे का तना एवं पत्तियाँ दिन के समय सूर्य की दिशा की ओर दिष्ट रहते हैं । प्रातःकाल के समय पौधे के ये भाग पूर्व दिशा की ओर होते हैं और दोपहर बाद पौधे के ये भाग पश्चिम की ओर होते हैं ।

सूर्य की दिशा के अनुसार पौधे का तना और सम्पूर्ण भाग घूमता जाता है । फूल आने के बाद पौधे की यह प्रकाश अनुग्राही गति कम हो जाती है और अन्त में रूक जाती है ।

इस समय पर पुष्पों का मुख केवल पूर्व दिशा की ओर ठहरा रहता है । इसे सूरजमुखी के पौधों का प्रकाशअनुग्राही स्वभाव कहा जाता है ।


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सूरजमुखी का उत्पत्ति स्थान एवं इतिहास

सूरजमुखी का उत्पत्ति स्थान अमेरिका महाद्वीप माना जाता है ।

वहीं से इसका प्रचार एवं प्रसार रूस, भारत व विश्व के अन्य देशों को हुआ और आज इसे विश्व की एक महत्वपूर्ण वानस्पतिक तेल वाली फसल (vegetable oil crop) का दर्जा प्राप्त हो चुका है ।


सूरजमुखी की खेती का भगोलिक विवरण

विश्व के सूरजुखी उत्पादक प्रमुख देशों में रूस, अर्जेन्टाइना, चीन, स्पेन और टर्की आदि हैं । विश्व में कुल लगभग 22 मिलियन हैक्टेयर क्षेत्रफल पर सूरजमुखी की खेती (surajmukhi ki kheti) की जाती है तथा इसका कुल उत्पादन 27 मिलियन टन है ।

वर्तमान समय में इसकी औसत उत्पादकता लगभग 11 क्विटल/हैक्टेयर है । भारत में सन् 1970 के दशक में राष्ट्रीय स्तर पर सूरजमुखी की खेती का विकास प्रारम्भ हुआ ।

यहाँ लगभग 15 लाख हैक्टेयर भूमि पर सूरजमुखी की खेती (surajmukhi ki kheti) की जाती है और इससे लगभग 90 लाख टन उत्पादन हो रहा है ।

भारत में सूरजमुखी की खेती करने वाले प्रमुख राज्यों में महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, आन्ध्रप्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा एवं पंजाब आदि हैं । सम्पूर्ण भारत में सूरजमुखी की औसत उत्पादकता 7 क्विटल / हैक्टेयर है ।


सूरजमुखी का वानस्पतिक विवरण

सूरजमुखी का वानस्पतिक नाम Helianthus annus है । यह 'कम्पोजिटी' (compositae) परिवार से सम्बन्धित है ।

इसका पौधा एकवर्षीय एवं शाकीय होता है । पौधे की ऊँचाई 1.2 से 2.5 मीटर तक होती है । इसका तना सीधा बढ़ने वाला, चिकना, रोमयुक्त तथा मांसल होता है । इसके तने पर गहरी हरी पत्तियाँ एकान्तर क्रम में लगी होती हैं । सूरजमुखी का बीज काले व भूरे रंग का होता है तथा इस पर सफेद धारियाँ पाई जाती हैं ।


सूरजमुखी की खेती के लिए उचित जलवायु एवं आवश्यक वर्षा

सूरजमुखी की फसल 600 मिमी. तक वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में सरलतापूर्वक की जा सकती है । यह फसल सूखे को सहन कर लेती है, परन्तु नमी की उपलब्धता होने पर इसकी उपज अच्छी होती है ।

इसके पौधों की लम्बाई अधिक होने के कारण तेज हवाओं से इसके गिरने की सम्भावना भी रहती है । सूरजमुखी के बीजों के अंकुरण (germination) से लेकर, निर्गमन (Emergence), पौधों की वृद्धि एवं विकास, परिपक्वता का समय और तेल की गुणवत्ता तथा मात्रा पर तापमान का विशेष प्रभाव होता है ।

फसल की वृद्धि एवं विकास के साथ तापमान 8 से 15°C रहने पर उसके बीजों में लिनोलिक अम्ल की प्रतिशत मात्रा अधिक होती है जिसके आधार पर यह खाने के लिये अधिक उपयुक्त माना जाता है । तापमान 20°C से अधिक हो जाने पर इसके तेल की गुणवत्ता में कमी आ जाती है । अत: अनुकूल तापक्रम रहना आवश्यक होता है ।


सूरजमुखी की उन्नत खेती कैसे करें? | surajmukhi ki kheti

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ऐसे करें सूरजमुखी की उन्नत खेती (surajmukhi ki kheti) होगा दोगुना लाभ

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ऐसे करें सूरजमुखी की उन्नत खेती होगा दोगुना लाभ?

भारत में सूरजमुखी की उन्नत खेती एवं अधिकतम उत्पादन के लिए अपनाए जाने वाली उन्नत से सस्य क्रियाएं निम्नलिखित है ।


सूरजमुखी की खेती के लिए उपयुक्त मिट्टी

सूरजमुखी की फसल (surajmukhi ki fasal) विभिन्न प्रकार की भूमियों में उगाई जाती है । बलुई भूमि इस फसल के लिये अधिक अनुकूल होती है । भूमि का pH मान 6-5 से 8 के बीच में होना चाहिये ।

अम्लीय भूमियाँ सूरजमुखी की खेती (surajmukhi ki kheti) के लिये उपयुक्त नहीं होती है । हल्की क्षारीयता को यह फसल सहन कर लेती है ।


सूरजमुखी की खेती के लिए भूमि की तैयारी कैसे करें?

खेत की तैयारी के लिये मिट्टी पलटने वाले हल से एक गहरी जुताई की जाती है । खेत में उपस्थित घास - फूस व डण्ठलों आदि को इकट्ठा करके जला देना चाहिये । खेत की मिट्टी को भुरभुरा बनाने के लिये 2-3 बार हैरो चलानी चाहिये । प्रत्येक जुताई या हैरो के पश्चात् भूमि में नमी संरक्षण हेतु पाटा लगाना आवश्यक होता है ।


सूरजमुखी की प्रजाति

सूरजमुखी की अधिक उपज प्राप्त करने के लिये विभिन्न उन्नतिशील व संकर जातियाँ विकसित की जा चुकी हैं । इनमें से बुवाई का समय, क्षेत्र की जलवायु एवं मृदा को ध्यान में रखते हुये उपयुक्त किस्म का चुनाव बुवाई हेतु किया जा सकता है ।


सूरजमुखी की प्रमुख उन्नत प्रजातियां -

  • EC - 68414
  • EC - 68415
  • EC - 69874
  • पैराडीविक
  • Sunrise selection
  • Modern dwarf
  • रूमसुम व सूर्या आदि ।


सूरजमुखी की संकर प्रजातियां -

  • Bioseed - 5455
  • Bioseed - 5457
  • Bhiseed - 5468
  • BSH - 1
  • LSH - 1
  • MSFH - 8
  • MSFH - 17
  • पारस व ज्वालामुखी आदि ।


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सूरजमुखी की खेती में अपनाए जाने वाले फसल चक्र

सूरजमुखी की खेती (surajmukhi ki kheti) भारत में तीनों मौसमों की जा सकती है । अत: फसल चक्र में इस फसल को सम्मिलित करना सरल है ।


इस फसल के कुछ प्रमुख फसल चक्र निम्न प्रकार है -

  • मक्का - सूरजमुखी ( रबी एकवर्षीय )
  • मक्का - आलू - सूरमुखी ( जायद एकवर्षीय )
  • मक्का - तोरिया - सूरजमुखी ( जायद एकवर्षीय )
  • सूरजमुखी - गेहूँ ( खरीफ एकवर्षीय )


सूरजमुखी की खेती कब होती है?

खरीफ के मौसम में इस फसल की बुवाई 15-25 जौलाई तक; रबी के मौसम में 20 अक्टूबर से 10 नवम्बर तक तथा जायद की फसल की बुवाई 20 फरवरी से 10 मार्च तक की जाती है ।


सूरजमुखी के बीज दर कितनी होती है?

एक हैक्टेयर खेत के लिये 8-10 कि. बीज की मात्रा पर्याप्त रहती है । पंक्ति से पंक्ति की दूरी 60 सेमी० या पौधे से पौधे की दूरी 20 सेमी० रखी जाती है । सूरजमुखी का बीजावरण मोटा होने के कारण वह भूमि की नमी को धीरे - धीरे सोखता है ।

अतः इसके अंकुरण में देरी होती है । बुवाई के समय खेत में पर्याप्त नमी होनी आवश्यक है । इसीलिये इसका बीज सामान्यतः 5-6 सेमी० की गहराई पर पंक्तियों में या सीडड्रिल द्वारा बोया जाता है ।

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सूरजमुखी के बीज का उपचार

सूरजमुखी के बीज को बीजजनित बीमारियों से बचाने के लिये 3 ग्राम कैप्टान या थायराम या सरेसान प्रति किग्रा. बीज की दर से उपचारित करना चाहिये ।


सूरजमुखी की खेती के लिए आवश्यक खाद एवं उर्वरक की मात्रा

सूरजमुखी की फसल (surajmukhi ki fasal) के लिये बिवाई के एक माह पूर्व 10 टन सड़ी हुई गोबर की खाद 1 हैक्टेयर में डालनी चाहिये ।

उन्नतिशील जातियों की खेती के लिये 80 किग्रा. नाइट्रोजन, 60 किग्रा. फास्फोरस व 40 किग्रा. पोटाश प्रति हैक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिये ।

संकर जातियों के लिये 150 किग्रा० नाइट्रोजन, 80 किग्रा० फास्फोरस व 70 किग्रा० पोटाश प्रति हैक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिये । कुल मात्रा का दो तिहाई, नाइट्रोजन व सम्पूर्ण फास्फोरस तथा पोटाश बुवाई के समय प्रयोग करने चाहिये । नाइट्रोजन की शेष मात्रा 45 दिन के पश्चात् प्रयोग करनी चाहिये ।


सूरजमुखी की खेती के लिए आवश्यक सिंचाई

खरीफ के मौसम में उगाई गई सूरजमुखी की फसल (surajmukhi ki fasal) के लिये सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है ।

यदि वर्षा का अभाव हो तो इस मौसम में फसल की एक सिंचाई की जा सकती है । रबी के मौसम में उगाई जाने वाली फसल के लिये सामान्यत: 3-4 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है । ये सिंचाइयाँ बुवाई के 40, 60 व 90 दिनों के बाद करनी चाहिये ।

जायद के मौसम की फसल के लिये अधिक पानी की आवश्यकता होती है । कुल 6 से 7 सिचाइयाँ देनी पड़ती हैं । प्रत्येक पखवाड़े में एक सिंचाई आवश्यक होती है । इस फसल की अच्छी उपज प्राप्त करने के लिये भूमि में फसल के पौधों पर फूल आते समय, कलियाँ बनते समय व दाना भरते समय पानी की कमी नहीं करनी चाहिये ।


सूरजमुखी की फसल सुरक्षा

सूरजमुखी की फसल को खरपतवार, रोग व कीट हानि करते रहते है । अत: समय रहते इन पर नियन्त्रण करना आवश्यक है ।


( i ) सूरजमुखी की खेती में लगने वाले खरपतवार एवं उनका नियन्त्रण

सूरजमुखी की रबी मौसम में उगाई जाने फसल में मोथा, बथुआ, कृष्णनील व हिरनखुरी आदि खरपतवार पाये जाते हैं ।

इन पर नियन्त्रण के लिये - फसल की बुवाई के पश्चात् एवं अंकुरण से पूर्व बेसालीन की 1 किग्रा. (सक्रिय तत्व) का 1000 लीटर पानी में घोल बनाकर 1 हैक्टेयर खेत में छिड़काव करना चाहिये ।


( ii ) सूरजमुखी की खेती में लगने वाले रोग एवं उनका नियन्त्रण

सूरजमुखी की फसल में हानि करने वाले रोगों में बीज सड़न (seed rot) रोग, झुलसा (Alternaria blight) रोग, गेरूई (rust) रोग, तुलासिता (Downey mildew) रोग व शीर्ष सड़न (head rotting) रोग आदि प्रमुख है ।

इन पर नियन्त्रण के लिये - खेत में जल निकास की उचित व्यवस्था रखनी चाहिये । ऐसा करने से फसल को जड़ सड़न रोग से बचाया जा सकता है ।

  • झुलसा रोगरोधी जाति APSH - 11 उगानी चाहिये ।
  • गेरूई रोगरोधी जाति BSH - 1 को उगाना चाहिये ।

तुलासिता रोग पर नियन्त्रण के लिये - इसकी प्रतिरोधी जातियों जैसे- LSH - 1, LSH - 3, MSFH - 1 व MSFH - 8 को उगाना चाहिये । इस फसल में लगने वाली अधिकतर बीमारियों पर नियन्त्रण के लिये 1.5 ग्राम जिरम प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिये ।


( iii ) सूरजमुखी की खेती में लगने वाले कीट एवं उनका नियन्त्रण

सूरजमुखी की फसल का रस चूसने वाले कीट जैसे जैसिड (Jassids), सफेद मक्खी (White fly), माहू व थ्रिप्स आदि हैं ।

पौधों की पत्तियाँ खाने वाले कीटों में तम्बाकू की सूंडी, बिहार बालदार गिंडार, टिड्डा व कट वर्म आदि हैं । फल व फूल को क्षतिग्रस्त करने वाले कीटों में शीर्षछेदक (head borer) व पक्षी जैसे तोता व मैना आदि हैं ।

इन कीटों पर नियन्त्रण के लिये - 1.5 किग्रा० थायराम प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिये । पक्षियों विशेषतया तोता व मैना आदि से होने वाली हानि पर नियन्त्रण करने के लिये शिकारी पुतले (hunter effigy) खड़े किये जाते है ।


सूरजमुखी की उपज

सूरजमुखी की उपज पर इसकी प्रजाति, उगाये जाने वाले मौसम व सिंचाई आदि का विशेष प्रभाव पड़ता है । रबी के मौसम में उगाई गई सूरजमुखी की फसल (surajmukhi ki fasal) की उपज 10-20 क्विटल/हैक्टेयर तक प्राप्त होती है ।

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